भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
अभिशापित जीवन (काव्य)  Click to print this content  
Author:डॉ॰ गोविन्द 'गजब'

साथ छोड़ दे साँस, न जाने कब थम जाए दिल की धड़कन।
बोझ उठाये कंधों पर, जीते कितना अभिशापित जीवन॥

हिन्दू हो यामुसलमान, है हर मजदूर की एक कहानी।
बूंद बूंद को तरस रहे, प्यासे होठो को ना है पानी॥
फटकर बहता खून, दर्द से व्याकुल, हैं पैरों में छाले।
भूखे तड़प रहे बच्चे, न मिल पाते दो एक निवाले॥
गर्मी से जलती सड़कों पर घायल होता है नित तन मन।
बोझ उठाये कंधों पर, जीते कितना अभिशापित जीवन॥

आज उपेक्षित हुए वही जो हैं महलों की नींव के पत्थर।
बिलख रहे बच्चे बूढ़े, घुट घुट कर मरते सड़कों पर॥
रोज हादसे रोज मौत होती, घायल चीत्कार रहे हैं।
तोड़ रहे है दम राहों में, उजड़ कई परिवार रहे हैं॥
हालातों के हाथ हुए बेबस, करते है मौन समर्पण।
बोझ उठाये कंधों पर, जीते कितना अभिशापित जीवन॥

तन का नही खयाल, लगी है धुन इनको बस घर जाना है।
नाप लिया पैदल सड़को को, जिद है बस मंजिल पाना है॥
जीवन खपा दिया सेवा में, बस इसका इतना बदला दो।
अरे सियासतदानों, थोड़ा रहम करो, घर तक पहुचा दो॥
क्या पाएंगे मरने पर, तुम जलवा दो चाहे रख चंदन।
बोझ उठाये कंधों पर, जीते कितना अभिशापित जीवन॥

- डॉ॰ गोविन्द 'गजब'
  रायबरेली उत्तर प्रदेश, भारत
  वाट्सअप: 8808713366
  ई-मेल: gajab3940@gmail.com

Previous Page  |  Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश