मैं दुनिया की सब भाषाओं की इज्जत करता हूँ, परन्तु मेरे देश में हिंदी की इज्जत न हो, यह मैं नहीं सह सकता। - विनोबा भावे।
आत्मचिंतन (काव्य)  Click to print this content  
Author:डॉ॰ कामना जैन

चिंतित हो गया है किंचित,
आज मानव,
इस आत्मचिंतन की अवधि में।
जीवन पर जब आया संकट,
तब समझ वह पाया,
इस अखंड ब्रह्मांड की लीला।
अजेय प्रकृति को विजित मान,
आज अपने ही पापों की गठरी को ढो रहा।
मानव का अहंकार,
कर रहा था प्रकृति का तिरस्कार।
रोजी-रोटी और सुविधाओं की आपाधापी में,
चर-अचराचर जगत और स्वयं से भी दूर हो गया।
बढ़ती बाढ़ों, भूकंपों, तूफानों के कहरों से,
अब तो विज्ञान भी डोल गया।
असीमित आकांक्षाओं ने ही तो दावानल दहकाया था,
बेजुबान मासूम जीवो की चितकार
ने भी यही दिखलाया था।
मारा-मारा, भागा-भागा फिर रहा था मानव ,
पर इस दहक को न रोक पाया था।
फिर मेघों की रिमझिम बूंदों ने यह जतलाया था,
प्रकृति बड़ी बलवान है।
मानव के बस में नहीं कुछ,
जब प्रकृति कुपित होती है,
प्लेग, चेचक, सार्स, स्वाइन और इबोला,
सब प्रकृति के हस्ताक्षर हैं।
कोरोना भी पदचाप उसी की,
पुनः उसी ने चेताया है।
ले लो सबक अनूठे,
इस आत्मचिंतन की अवधि में,
अन्यथा हाहाकार मच जाएगा।
मां का हृदय छलनी हुआ तो,
मानव जीवन पर भी,
विराम चिन्ह लग जाएगा,
विराम चिन्ह लग जाएगा।

-डॉ॰ कामना जैन
[असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति विज्ञान विभाग, एस .एस. डी .पी.सी. कॉलेज़, रूड़की]
ई-मेल: drkamna1977@gmail.com

Previous Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश