भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
अकारण  (काव्य)  Click to print this content  
Author:राजीव वाधवा

गगन में टूटता तारा
कि जैसे हो कोई बेघर
चमन में झूलती डाली
मचलता जैसे हो सरवर

ज़माना इक जहां तेरा
इरादे टूटते बनते
रहेगा इक निशां मेरा
तमन्ना इसकी सब करते

तमन्नाओं के घेरे में
संभलते डूबते जाना
कभी याद आए जब अपनी
मनाने तुम हमें आना

भुलाने को ये भूख अपनी
किसी ग़म का सहारा हो
तड़पता खुद कोई मुफलिस
था रोटी बांटता सबको।

-राजीव वाधवा, ऑकलैंड
 [भारत-दर्शन, अगस्त-सितम्बर 1997]

 

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