पेड़ अगर जो मोह लगाते फल डालियों पर सड़ जाते, नदियां तेरा-मेरा जो करती कभी नहीं सागर तक तरती।
क्यों करता है फिर नर अपना-पराया जो सब कुछ है, सब इसी से तो आया, क्यों भूल जाता वह इस जग के आधार को रोज देता है क्यों चुनौती स्वयं सृजनहार को।
विकृत हुई क्यों बुद्धि मेरी, तुम ही बताओ राम मेरे क्यों मान बैठा कर्ता खुद को किये जो तूने काम मेरे, क्यों ये मेरा मन हमेशा ही में तेरे-मेरे डोल रहा तेरी बनाई सृष्टि को भी, अच्छे-बुरे में तोल रहा।
जी रहा क्यूँ मैं उस कल में जो अतीत में बीत गया हुआ नहीं अभी तक वह क्यूँ वर्तमान से जीत गया, क्यों सताती चिंता मुझको माया के आने-जाने से भूल जाता क्यों मैं, कि तू देता सब अपने पैमाने से।
सुन व्यथा, मुस्काए मोहन, और जिह्वा को तान लिया मैंने भी फिर बैठ चरणों में उनसे सत्य का ज्ञान लिया, काल चक्र में जो बीत गया वो, मुझको वो मेरा काम दिखा विस्मृत था मेरे रूप से, तो उसमें तुझको अपना नाम दिखा।
जब प्रकृति ने जब धीरे-धीरे जीवों का उत्थान किया बुद्धि बनी, तो फिर उसने, "मैं" का आह्वान किया, "मैं" ने तो मति भी हर ली, खुद को सर्वश्रेष्ठ बता दिया पूछा तब फिर कुछ भी उससे, उसने अपना पता दिया।
ध्यान रख कि क्या सत्य है और कर्ता को पहचान तू क्या "मैं" है और कौन तू है, इनमें अंतर भी जान तू।
मोह लगा तू, पर कुछ ऐसे, जैसे वृक्ष लगाते पत्तों से ऋतु आने पर बाहर आ जाती, मक्खियां भी छत्तो से, मोह लिप्त मानव के हालत, उस चींटी-से हो जाते हैं मीठे को जो गई शहद पर, घुट-घुट के जान गँवाती है।
--शैलेन्द्र कुमार शर्मा ई-मेल: skumarsiitr@gmail.com
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