भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
कुछ तो सोचा ही होगा (काव्य)  Click to print this content  
Author:बालकवि बैरागी

कुछ तो सोचा ही होगा संसार बनाने वाले ने
वरना सोचो ये दुनिया जीने के लायक क्यों होती?
तुम रोज सवेरे उठते हो और रोज रात को सोते हो
जब भी कोई मिलता है, अपना ही रोना रोते हो,
ये रोना-धोना बंद करो, कुछ हँसना-गाना शुरू करो
बेशक मरने को आए हो, पर बिना जिये तो नहीं मरो।

इन पेड़ों से, इन पौधों से कुछ कला सीख लो जीने की
वरना ये हँसमुख हरियाली इतनी सुखदायक क्यों होती?
वरना सोचो ये दुनिया जीने के लायक क्यों होती?
कुछ तो सोचा ही होगा संसार बनाने वाले ने।

निस्सार कहो, नश्वर कह दो, पर जीवन आखिर जीवन है
इसमें ही मोर, पपीहे हैं, रसरंग भरा अपनापन है,
यदि सार नहीं होता ये तो क्यों निस्सार कहाता ये
इसकी, उसकी, कड़वी, मीठी, क्यों कर गाली खाता ये?
धन्यवाद दो उसको जिसने यह उपहार दिया अनुपम,
वरना अपनी ही जठरा इसकी संवाहक क्यों होती?
वरना सोचो ये दुनिया जीने के लायक क्यों होती?
कुछ तो सोचा ही होगा संसार बनाने वाले ने।

आप जिसे दुख कहते हैं, वह क्यों फिरता मारा-मारा
इतना शक्तिभूत होकर भी क्यों कहलाता बेचारा?
वह भी अपने सुख की खातिर आप तलक आ जाता है,
मुझको मेरा सुख दे दो, कहकर झोली फैलाता है।

हर दुख का भी अपना सुख है, जो छिपा आपके भीतर है,
यह छम्मक छैया सुख-दुख की, अपनी सुर गायक क्यों होती?
वरना सोचो ये दुनिया जीने के लायक क्यों होती?
कुछ तो सोचा ही होगा संसार बनाने वाले ने।

इस दुनिया में इस जीवन को जी लेना एक तपस्या है
पता नहीं किसने समझाया जीवन एक समस्या है।
संसार बनाने वाला अपना शत्रु नहीं है, साथी है
जब जब भी तुम हँसते हो उसकी बांछें खिल जाती हैं।

आँसू को उसने उम्र नहीं दी यह भी एक करिश्मा है
वरना खुशियों की उम्र भला इतनी उन्नायक क्यों होती?
वरना सोचो ये दुनिया जीने के लायक क्यों होती?
कुछ तो सोचा ही होगा संसार बनाने वाले ने।

--बालकवि बैरागी
(10 फरवरी 1931 - 13 मई 2018)

 

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