मैं जग को पहचान न पाया।
जो मैंने समझा था अपना, था क्या वह ममता का सपना ? उन अपनों ने ही अपने को, होते देखा आज पराया ! मैं जग को पहचान न पाया।
सपनों की कुटिया छाई थी, मेरी ममता को भाई थी; उसने भी आँखों से देखा, मुझको होते आज पराया । मैं जग को पहचान न पाया ।
झिलमिल का यह निरा झमेला, मैं हूँ इसमें आज अकेला । मेरी छाया ही तो मुझको छलती है, कैसी यह माया ! मैं जग को पहचान न पाया।
-भगवद्दत्त 'शिशु' [1946]
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