स्वप्न मिले मिट्टी में कब के, और हौसले बैठे हार, आग बची है केवल अब तो फूँक हृदय जो करती क्षार।
भाग्य कुटिल के तूफानों में उजड़ा मेरा मधुर बसंत, हूँ बिसूरता बैठ अकेला आ पहुँचा क्या मेरा अंत।
शीत वायु के अंतिम झोंके का सहकर मानो अभिशाप, एक अकेली नग्न डाल पर पत्ता एक रहा हो काँप।
-अलेक्सांद्र पूश्किन (Alexander Pushkin) अनुवाद: हरिवंशराय बच्चन
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