उस दिन बहुत उदास थी माँ, चापाकल के चबूतरे पर चुपचाप बैठी रही, आसमान को काफी देर निहारती हुई एकटक, माँ को माँ की याद आ रही थी, और पिताजी ने मना कर दिया था नानी के घर पहुंचाने से, उस दिन फीकी बनी थी दाल, कई दिनों तक माँ-पिताजी के रिश्तों में कम रहा नमक, रोटियां पड़ी रहीं अधपकी सी, घर लौटे बिना खाए लेटे रहे पिताजी, उस दिन गर्म दूध हमें देते वक्त टप से गिरे थे माँ के आंसू, और फट गया था सारा दूध रिश्तों की तरह, उस दिन सुबह पिताजी का तकिया भी भीगा हुआ सा मिला, बहुत छोटा सा मैं उन दिनों समझ नहीं पाया रिश्तों की कशमकश, आज जब मैंने रोक दिया बबली को मायके जाने से तब शायद समझ पाया, वो पुरुष मानसिकता नहीं थी पिताजी की, दरअसल वो बहुत प्यार करते थे माँ से, नहीं रहना चाहते थे एक पल भी अलग, और मुझे याद है कुछ दिन बाद, पिताजी माँ और हमें छोड़ आए थे नानी के गांव, और गर्मी छुट्टी बाद जब हम मामा संग लौटे, शाम को चापाकल के उसी चबूतरे पर पिताजी मिले हमारा इंतजार करते हुए।
--अमलेन्दु अस्थाना *रचनाकार दैनिक भास्कर, पटना में चीफ सब एडिटर हैं।
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