भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
डार्लिंग (कथा-कहानी)  Click to print this content  
Author:एन्तॉन चेखव

रूसी कथाकार एन्तॉन चेखव का जन्म 1860 में हुआ। उनके पूर्वज बंधुआ कृषक थे। चेखव ने अपनी रचनाओं में निर्धन किसानों के संघर्ष और जिजीविषा का गहन और मार्मिक वर्णन किया। चेखव ने चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा प्राप्त कर डॉक्टर का पेशा अपनाया। वे स्वयं बीमार रहते थे किंतु उन्होंने जीवन भर रोगियों की सेवा की। उनकी कालजयी कहानियों में आम आदमी के प्रति करुणा तो झलकती ही है, रोगियों के प्रति भी मानवीय दृष्टिकोण उभरता है। चेखव बड़ी सादगी से कथा कहने में सिध्दहस्त हैं। एन्तॉन चेखव ने कुछ बहुत अच्छे नाटक भी लिखें जिनमें 'द चेरी ऑर्चड' व 'अंकल वान्या' विश्वप्रसिध्द हैं।

गर्मी के दिन थे। ओलेन्का अपने मकान के पिछले दरवाजे पर बैठी थी। यद्यपि उसे मक्खियां बहुत सता रही थीं, फिर भी यह सोचकर कि शाम बहुत जल्दी ही आने वाली है, वह बड़ी प्रसन्न हो रही थी। पूर्व की ओर घने, काले बादल इकट्ठे हो रहे थे।

कुकीन, जो ओलेन्का के मकान में ही एक किराये का कमरा लेकर रहता था, बाहर खड़ा आकाश की ओर देख रहा था। वह ''ट्रिवोली नाटक कम्पनी'' का मैनेजर था।

''ऊंह, रोज-रोज पानी, रोज-रोज पानी! नाक में दम हो गया।'' कुकीन अपने ही आप कह रहा था- ''रोज कम्पनी का नुकसान होता है।'' फिर ओलेन्का की ओर मुड़ कर बोला, ''मेरी जिंदगी कितनी बुरी है! बिना खाये-पिये रात भर परिश्रम करता हूं, ताकि नाटक में जरा-सी गलती न निकले। सोचते-सोचते मर जाता हूं, पर जानती हो फल क्या होता है? इतने ऊंचे दर्जे की चीख को कोई भी नहीं समझ पाता। जनता बेवकूफी की बातों को, दौड़-धूप को बहुत पसंद करती है। और फिर मौसम का यह हाल है! देखो न रोज शाम को पानी बरसने लगता है। मई के दस तारीख से पानी शुरू हुआ, और सारे जून भर रहा। जो पहले आते भी थे, वे अब इस पानी के मारे नहीं आते। कुछ भी नहीं मिलता, अभिनेताओं को देने के लिये रुपया कहां से लाऊं, कुछ भी समझ में नहीं आता।'

दूसरे दिन शाम को ठीक समय पर आकाश में फिर बादल इकट्ठे होने लगे। कुकीन लापरवाही से हंस कर बोला- ''ऊंह, जाने भी दो! चाहे मुझे और मेरी कंपनी को डुबा दे, पर मुझे कुछ भी फिक्र नहीं है। जाने दो, अगर इस जीवन में मैं अभागा ही रहूंगा, तो रहूं। यदि सब अभिनेता मिल कर मेरे ऊपर मुकदमा चला दें तो कितना अच्छा हो। हो...हा...हा-!''

तीसरे दिन फिर वही पानी! बेचारे कुकीन का हृदय रो रहा था।

ओलेन्का ने चुपचाप बहुत ध्यान से कुकीन की बातें सुनीं। कभी-कभी उसकी आंखों से दो बूंद आंसू भी टपक पड़ते थे। ओलेन्का को कुकीन से बहुत सहानुभूति थी। कुकीन एक नाटा, पीला और लंबे बालों वाला आदमी था। उसकी आवाज बहुत पतली और तेज थी।

ओलेन्का अभी तक किसी न किसी को प्यार करती आई है। वह अपने बुङ्ढे बीमार बाप को प्यार कर चुकी है, जो हमेशा अंधेरे कमरे में, आराम कुरसी पर लेट कर, लम्बी सांसें लिया करता था। वह अपनी चाची को प्यार कर चुकी है, जो साल भर में एक या दो बार ब्रिआत्सका से ओलेन्का को देखने आया करती थी। हां, उसके पहले उसने अपनी शिक्षक को प्यार किया था और अब वह कुकीन से प्रेम करती थी।

ओलेन्का चुप्पी और दयालु थी। उसके दुबले शरीर और पीले, पर कुस्कराहट भरे चेहरे को देख कर, लोग हंस कर कह देते, हां- ''कोई वैसी बुरी तो नहीं है।'' औरतें बातचीत करते-करते उसे ''डार्लिंग'' कह कर सम्बोधित किया करती थीं।

उसका यह मकान, जो उसकी पैतृक सम्पत्ति थी और जिसमें वह बचपन से ही रह रही थी, 'ट्रिबोली नाटक कम्पनी' के पास, 'जिप्सी रोड' पर था। वह सुबह से शाम तक 'ट्रिबोली' के गाने सुना करती थी, साथ ही साथ कुकीन का गुस्से से चिल्लाना भी सुन सकती थी। यह सब सुन कर उसका कोमल हृदय पिघल जाता, वह रात-भर सो न सकती। जब एक पहर रात गये कुकीन घर लौटता, तो वह मुस्करा कर उसका स्वागत करती और उसका दिल खुश करने की चेष्टा करती। अंत में, उनकी शादी हो गई। दोनों प्रसन्न थे। पर... ठीक शादी के दिन शाम को जोरों की वर्षा हुई और कुकीन के चेहरे से निराशा और ऊब के चिन्ह न मिटे।

उनके दिन अच्छी तरह बीत रहे थे। कम्पनी का हिसाब रखना, थियेटर हाल का निरीक्षण और तनख्वाह बांटना, अब आरेलेन्का का काम था। अब जब वह अपनी सहेलियों से मिलती तो अपने थियेटर की ही चर्चा किया करती। वह कहा करती कि थियेटर दुनिया की सब से मुख्य, सबसे महान् और सब से आवश्यक चीज है और कहती थी कि सच्चा आनन्द और सच्ची शिक्षा थियेटर के सिवा और कहीं नहीं मिल सकते।

''पर क्या तुम समझती हो कि जनता में यह समझने की शक्ति है?'' वह पूछा करती, ''जनता तो बेवकूफी की बातों और दौड़-धूप को बहुत पसंद करती है।'' कल के खेल में जगह सब खाली थी। कल मैंने और कुकीन ने बहुत अच्छा खेल चुन कर दिया था, इसीलिये। अगर हम लोग कोई रद्दी बेवकूफी का खेल देते तो हॉल में तिल भर भी जगह न बाकी रहती। कल हम लोग ''.....'' दिखलाने वाले हैं। अवश्य आना, अच्छा?''

वह रिहर्सल की देख-भाल करती, अभिनेताओं की गलतियां सुधारती, गायकों को ठीक करती; और जब किसी पत्र में उस नाटक की बुराई निकलती, तो वह घंटों रोती और उस पत्र के सम्पादक से बहस कर उसे गलत प्रमाणित करने के लिए दौड़ी जाती।

थियेटर के अभिनेता उसे चाहते थे, और ''डार्लिंग'' कहा करते थे। वह उनकी चिंताओं से स्वयं भी चिंतित थी और आवश्यकता पड़ने पर उन्हें कर्ज भी दे देती थी।

जाड़ों के दिन भी अच्छी तरह निकल गये। ओलेन्का बहुत प्रसन्न थी, और कुछ-कुछ मोटी भी हो रही थी, पर कुकीन दिन पर दिन दुबला और चिड़चिड़ा होता जा रहा था। रात-दिन वह कम्पनी के नुकसान की शिकायत किया करता था, यद्यपि जाड़ों में उसे नुकसान नहीं हुआ था। रात को उसे बड़े जोरों की खांसी उठती, तो ओलेन्का तरह-तरह की दवायें दे कर उसके कष्ट को दूर करने की चेष्टा करती।

कुछ दिनों बाद, थोड़े दिनों के लिये वह अपनी कम्पनी के साथ मास्को चला गया। उसके चले जाने पर ओलेन्का बहुत दु:खी रहने लगी। खिड़की पर बैठ कर, रात भर वह आकाश की ओर देखा करती। कुकीन ने लिखा कि किसी कारणवश वह 'ईस्टर' त्यौहार के पहले घर न लौट सकेगा। उसके खत केवल ट्रिबोली के समाचारों से भरे रहते।

'ईस्टर' के सोमवार के पहले एक दिन रात को न जाने किसने किवाड़ खटखटाये। रसोइया नींद से उठ कर, गिरते-पड़ते दरवाजा खोलने गया।

''तार है, जल्द दरवाजा खोलो!'' किसी ने बड़े रुखे स्वर में कहा।

ओलेन्का को उसके पहले कुकीन का एक तार मिल चुका था। पर न जाने क्यों इस बार उसका हृदय किसी अनिष्ट की आशंका से कांप रहा था। कांपते हुये हाथों से उसने तार खोला।

''कुकीन की आज अचानक मृत्यु हो गई। आदेश की प्रतीक्षा है। अंतिम संस्कार मंगल को,'' तार में यही खबर थी! तार पर ''ऑपरा'' कंपनी के मैनेजर का हस्ताक्षर था।

ओलेन्का फूट-फूट कर रो रही थी! अहा, बेचारी...!

कुकीन मास्को में मंगलवार को दफनाया गया। बुधवार को ओलेन्का घर वापस आ गई। आते ही वह पलंग पर गिर पड़ी और इतनी जोर से रोने लगी कि सड़क पर चलने वाले तक उसका रोना सुन सकते थे। उसके पड़ोसी उसके घर के सामने से निकलते तो कहते, ''बेचारी 'डार्लिंग', कितना रो रही है!''

तीन महीने पश्चात एक दिन ओलेन्का कहीं जा रही थी। उसके बगल में एक आदमी जा रहा था। वह लकड़ी के कारखाने का मैनेजर था। देखने से वह अमीर आदमी मालूम होता था। उसका नाम वेसिली था।

''ओलेन्का, बड़े दु:ख की बात है,'' वह धीरे-धीरे कह रहा था, ''यदि कोई मर जाय तो ईश्वर की इच्छा समझ कर चुप रह जाना चाहिये। अच्छा जाता हूं। नमस्कार।'' और वह चला गया।

उसके बाद से ओलेन्का सदैव उसी का ध्यान करने लगी। एक दिन वेसिली की एक रिश्तेदार ओलेन्का से मिलने आई। ओलेन्का ने उसकी बड़ी खातिरदारी की। उस बुढ़िया ने वेसिली की तारीफ में ही सारा समय बिता दिया। उसके बाद, एक दिन वेसिली स्वयं भी ओलेन्का से मिलने आया। वह केवल दस मिनट ठहरा। पर इस दस मिनट की बातचीत ने ओलेन्का पर बहुत प्रभाव डाला।

कुछ दिनों बाद, उस बुढ़िया की सलाह से दोनों की शादी हो गयी थी। खाने तक कारखाने में रहता, फिर बाहर चला जाता। उसके जाने के बाद, ओलेन्का उसका स्थान ग्रहण करती। कारखाने का हिसाब रखना, नौकरों को तनख्वाह बांटना अब उसका काम था।

अब वह अपनी सखियों से लकड़ी के व्यापार और कारखाने के ही विषय में बातें किया करती थी, ''लकड़ी का दाम बीस रुपये सैकड़ा बढ़ रहा है'', वह बड़े दु:ख से कहा करती, ''पहले मैं और वेसिली जंगल से लकड़ी मंगा लेते थे। पर अब बेचारे वेसिली को हर साल मालगेव शहर में जाना पड़ता है। उस पर चुंगी अलग से।'' अब उसके लिये संसार की सबसे मुख्य, सब से महान और सबसे आवश्यक चीज लकड़ी थी। वेसिली की राय और उसकी राय एक थी। वेसिली को खेल तमाशे से नफरत थी, अतएव उसने भी तमाशों में जाना छोड़ दिया।

अगर उसकी सखियां पूछतीं कि, ''तुम घर के बाहर क्यों नहीं निकलती? थियेटर क्यों नहीं देखती?'' तो वह गर्व से कहती, ''मुझे और वेसिली को थियेटर में वक्त खराब करना पसन्द नहीं। थियेटर जाना बिल्कुल मूर्खता है।''

एक दिन ओलेन्का और वेसिली गिरजे से लौट रहे थे। ओलेन्का ने कहा, ''ईश्वर को बहुत धन्यवाद, हम लोगों का समय ठीक से कट रहा है। ईश्वर से यही प्रार्थना है कि सब मेरी और वेसिली की तरह सुख से रहें।''

जब एक दिन वेसिली लकड़ी खरीदने मालगेव चला गया, तो वह पागल-सी हो गई। रोते-रोते वह सारी रात बिता देती। दिन भर पागल-सी रहती, कभी-कभी स्मिरनॉव, जो मकान में किराये के कमरे में रहता था, उसे देखने जाया करता था। वह पशुओं का डॉक्टर था। वह ओलेन्का को अपने जीवन की घटनायें सुनाया करता या ताश खेला करता। उसकी शादी हो चुकी थी, और एक लड़का भी था, पर अब उसने अपनी स्त्री को छोड़ दिया था और अपने लड़के के लिये चालीस रुपया हर महीने भेजा करता था। वह कहा करता था कि ''उसकी पत्नी बड़ी धोखेबाज थी, इसीलिये उसे अलग होना पड़ा।'' ओलेन्का को उससे बड़ी सहानुभूति थी। ''ईश्वर तुम्हें खुश रक्खे,'' ओलेन्का वापस जाते हुए स्मिरनॉव से कहा करती थी, ''तुमने बहुत कष्ट उठाया। मेरा समय कट गया। किन शब्दों में तुम्हें धन्यवाद दूं?'' जब स्मिरनॉव और उनकी पत्नी की दोस्ती करा देने के लिये, तरह-तरह के उपाय सोचा करती।

वेसिली के लौट आने पर, एक दिन ओलेन्का ने उसे स्मिरनॉव की दु:ख-पूर्ण कहानी सुनाई। छ: साल तक ओलेन्का और वेसिली के दिन बड़े आनन्द से कटे। एक दिन जाड़ों में वेसिली, किसी आवश्यक काम से, नंगे सिर ही बाहर चला गया। लौट कर आया तो जुकाम हो गया था, और दूसरे ही दिन उसे पलंग पकड़ना पड़ा। शहर के सबसे अच्छे डॉक्टर ने उसकी दवा की। पर चार महीने की बीमारी के बाद, एक दिन वह मर गया। ओलेन्का फिर विधवा हो गई!
बेचारी ओलेन्का दिन रात रोती रहती थी। वह केवल काले कपड़े पहनती और गिरजा के सिवाय कहीं भी न जाती। एक संन्यासिनी की तरह वह अपने दिन काट रही थी। वेसिली की मृत्यु के छ: महीने बाद उसके शरीर से काले कपड़े उतरे। अब रोज सवेरे वह अपने रसोइये के साथ बाजार जाया करती थी।

घर में वह क्या किया करती थी, यह केवल अंदाज से लोग जान सकते थे। वे लोग कई बार ओलेन्का और स्मिरनॉव को बाग में बैठ कर चाय पीते और बातें करते देख चुके थे, इसी से वे अन्दाज लगाने की चेष्टा किया करते थे। एक दिन पशुओं के डॉक्टर स्मिरनॉव ने कहा, ''तुम्हारे शहर में अच्छा इंतजाम नहीं है, लोग बहुत बीमार पड़ते हैं। जानवरों की भी देख-भाल ठीक तरह से नहीं होती।''

अब वह स्मिरनॉव की बातें दुहराया करती और प्रत्येक चीज के बारे में जो उसकी राय होती, वही ओलेन्का की भी। यदि ओलेन्का के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री होती तो अभी तक सब की घृणा का पात्र बन गई होती, पर ओलेन्का के विषय में कोई भी ऐसा नहीं सोचता था। उसकी सखियां अब भी उसे डार्ल्ािंग कहती थी और उससे सहानुभूति रखती थीं। स्मिरनॉव अपने मित्रों और अफसरों को यह नहीं बतलाना चाहता था कि उससे और ओलेन्का से मित्रता है, पर ओलेन्का के लिये किसी बात को गुप्त रखना असम्भव था। जब डॉक्टर के अफसर या दोस्त उससे मिलने आते, तो उनके लिये चाय बनाती, और तरह-तरह की बीमारियों के विषय में बातें किया करती। वह स्मिरनॉव के विषय में बातें किया करती। यह स्मिरनॉव के लिये असह्य था। उनके जाने के बाद, वह ओलेन्का का हाथ पकड़ कर गुस्से से कहता, ''मैंने तुमसे कहा था कि तुम उन विषयों के बारे में बातें न किया करो, जिन्हें तुम नहीं समझतीं। याद है या भूल गई? जब हम लोग बातें करते हैं, तो तुम बीच में क्यों बोलती हो? मैं यह नहीं सह सकता। क्या तुम अपनी जीभ को वश में नहीं कर सकती?''

ओलेन्का डर कर उसकी ओर देखती, और दु:खित होकर पूछती, ''फिर मैं किसके बारे में बातें किया करूं, स्मिरनॉव?'' फिर वह रोते-रोते उससे क्षमा मांगती। और फिर दोनों खुश हो जाते।

ओलेन्का स्मिरनॉव के साथ बहुत दिनों तक नहीं रह सकी। स्मिरनॉव की बदली हो गई, और उसे बहुत दूर जाना पड़ा। ओलेन्का फिर अकेली थी। अब वह बिल्कुल अकेली थी। उसका पिता बहुत दिन पहले मर चुका था। वह दिन पर दिन दुबली होती जा रही थी। अब लोग उसे देख कर भी बिना कुछ कहे चले जाते। ओलेन्का शाम को सीढ़ियों पर बैठ कर ट्रिवोली के गाने सुना करती थी। पर अब उन गानों से उसे कुछ मतलब नहीं था।

वह अब भी लकड़ी के कारखाने को देखती पर उसे देखकर न वह दु:खी होती न सुखी। खाना मानों उसे जबर्दस्ती खाना पड़ता था। सब से दु:ख की बात तो यह थी, कि अब वह किसी भी चीज के बारे में राय नहीं देती थी। कुकीन, वेसिली और पशुओं के डॉक्टर के साथ रहने के समय बिना सोचे अपनी राय दे देना उसके लिये कुछ भी मुश्किल नहीं था। अब वह सब कुछ देखती, पर अपनी राय नहीं दे सकती थी।

धीरे-धीरे सब ओर परिवर्तन हो गया। ''जिप्सी रोड'' अब एक बड़ा रास्ता बन गया है और ट्रिबोली और लकड़ी के कारखाने के स्थान पर अब बहुत से बड़े-बड़े मकान बन गये हैं। ओलेन्का बूढ़ी हो चली है, उसका घर भी कहीं-कहीं टूट गया है।

अब ओलेन्का की रसोइया मार्वा जो कहती, वही वह मान लेती।

जुलाई में एक दिन, किसी ने दरवाजा खटखटाया। ओलेन्का स्वयं ही दरवाजा खोलने गई। दरवाजे पर अचानक स्मिरनॉव को देखकर वह आश्चर्य में डूब गई। पुरानी बातें एक-एक करके, उसे याद आने लगीं। अब वह अपने को न रोक सकी। दोनों हाथों से मुंह ढंक कर रोने लगी। उसे यह पता ही न चला कि वह कैसे चाय पीने बैठ गई। वह बहुत कुछ कहना चाह रही थी पर मुंह से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था। अंत में बड़े कष्ट से वह बोली, ''तुम अचानक आ गये?''

मैंने नौकरी छोड़ दी है। स्मिरनॉव ने कहा, ''और अब मैं अपनी गृहस्थी यहीं बसाना चाहता हूं। मेरे लड़के की उम्र अब स्कूल जाने लायक हो गई है। उसे स्कूल भी भेजना है और हां, तुम तो जानती न होगी, मेरी स्त्री से मेरी सुलह हो गई है।''

''तब वह कहां है?'' ओलेन्का ने बहुत उत्सुकतापूर्वक पूछा।

''वह और लड़का दोनों अभी होटल में हैं। अभी मुझे घर खोजना है।''

''हे भगवान! तुम इतनी तकलीफ क्यों करोगे! मेरा घर क्यों नहीं ले लेते? क्या यह घर तुम्हें पसन्द नहीं? अरे नहीं? डरो मत, मैं एक पैसा भी किराया नहीं लूंगी। मेरे लिये एक कोना काफी होगा, बाकी सब तुम ले लो। देखो न, काफी बड़ा मकान है। मेरे लिये इससे बढ़कर सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है?'' कहते-कहते वह फिर रो पड़ी।

दूसरे दिन तड़के उठ कर ओलेन्का ने घर की सफाई शुरू कर दी। घर की पुताई होने लगी। ओलेन्का बड़ी उमंग से चारों ओर घूम कर देख-भाल कर रही थी। थोड़ी देर में स्मिरनॉव, उसकी पत्नी और लड़का भी आ गये। स्मिरनॉव की पत्नी एक लम्बी और दुबली स्त्री थी। स्मिरनॉव का लड़का साशा, अपनी उम्र के हिसाब से बहुत नाटा था। वह बड़ा बातूनी और शरारती था।

''मौसी यही तुम्हारी बिल्ली है?'' उसने बड़े कुतूहल से पूछा, ''अच्छा मौसी, यह हमें दे दोगी? अम्मां चूहों से बड़ा डरती है।'' कहकर वह बड़े जोरों से हंसने लगा।

ओलेन्का को साशा बहुत पसन्द आया। उसने उसे अपने हाथ से चाय पिलाई और फिर घुमाने ले गई।

शाम को साशा अपना सबक याद करने बैठा। ओलेन्का भी उसके पास जाकर बैठ गई और धीरे से बोली, ''बेटा तुम बड़े होशियार हो, बहुत सुन्दर...'' साशा ओलेन्का की बात की कुछ भी परवाह न कर, अपनी ही धुन में कह रहा था, ''द्वीप पृथ्वी के उस टुकड़े को कहते हैं, जो चारों ओर पानी से घिरा रहता है।'' ओलेन्का ने भी कहा, ''द्वीप पृथ्वी के उस टुकड़े को कहते हैं...'' रात को खाने के समय वह साशा के मां-बाप से कहा कहती कि साशा को बहुत मेहनत करनी पड़ती है। रोज भूगोल रटना पड़ता है।

साशा अब स्कूल जाने लगा। उसकी मां एक बार खेरकाव में अपनी बहिन को देखने गई, फिर वहां रह गई। बाप सारे दिन, सारी शाम, घर के बाहर रहता। रात को नौ-दस बजे लौट कर आता। अतएव ओलेन्का ही साशा को रखती थी। रोज सवेरे वह साशा के कमरे में जाती, उसे जगाने में उसे बड़ा दु:ख होता, पर उसे विवश होकर जगाना ही पड़ता था। उसे जगा कर वह धीरे-धीरे कहती, ''उठो बेटा। स्कूल का समय हो गया।'' साशा कुछ नाराजगी से उठता, मुंह-हाथ धोकर कपड़े बदलता और फिर चाय पीने बैठ जाता। ओलेन्का धीरे से डरते-डरते कहती, ''बेटा, तुमने कहानी ठीक तरह से याद नहीं की।'' साशा नाराज होकर कहता, ''ऊंह, तुम यहां से जाओ।'' ओलेन्का उसकी ओर ऐसी देखती मानों वह किसी लम्बी यात्रा पर जा रहा हो, फिर धीरे-धीरे चली जाती। जब वह स्कूल जाने लगता तो वह थोड़ी दूर तक उसके पीछे-पीछे जाती। साशा को यह पसन्द नहीं था कि इतनी लम्बी अधेड़ औरत उसके पीछे-पीछे जाय। क्योंकि यदि उसका कोई साथी ओलेन्का को उसके पीछे-पीछे आते देख लेता, तो उसे सब लड़कों के सामने बहुत बनाता। वह ओलेन्का से कहता, ''मौसी, तुम घर चली जाओ, मैं अकेले जा सकता हूं।''

साशा को पहुंचा कर वह धीरे-धीरे घर लौटती। रास्ते में यदि कोई मिलता और हाल-चाल पूछता, तो वह कहती, ''स्कूल के मास्टर बड़े खराब होते हैं। बेचारे छोटे-छोटे बच्चों से बहुत मेहनत कराते हैं।''

साशा के स्कूल से लौटने पर वह उसे चाय पिलाती, और घुमाने ले जाती। रात को खाना खा चुकने पर उसे सुला कर तब वह सोती।

एक दिन वह साशा को सुलाकर स्वयं सोने जा रही थी कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। ओलेन्का अब तार से बहुत डरने लगी थी, क्योंकि इसी तरह रात को कुकीन की मृत्यु का समाचार मिला था। इतने ही में उसने सुना-तार है, दरवाजा खोलो। उसने कांपते हुए हाथों से तार पर दस्तखत किया। तार खेरकोव से आया था। ओलेन्का ने पढ़ा-''साशा की मां चाहती है कि साशा उसके पास खेरकोव चला आवे।''

- एन्तॉन चेखव

[संसार की श्रेष्ठ कहानियां, भाग-2, संपादन-हेमेन्द्र कुमार]

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