भाषा का निर्माण सेक्रेटरियट में नहीं होता, भाषा गढ़ी जाती है जनता की जिह्वा पर। - रामवृक्ष बेनीपुरी।
यह टूटा आदमी (काव्य)  Click to print this content  
Author: शिव नारायण जौहरी 'विमल'

कुंठा के कांधे पर उजड़ी मुस्कान धरे
हर क्षण श्मशान के द्वार खड़ा आह भरे
यह टूटा आदमी है भीड़ में अकेला
बेचारा देख रहा तृष्णा का मेला।

बर्फीली धूप से झुलस गई चमड़ी
मन की इस अर्थी पर नाच रही दमड़ी
ठंडे व्यवहारों का नीला सा खून पिए
जिन्दा है रात दिन उलझता झमेला
यह टूटा आदमी है भीड़ में अकेला।

भूल गया शीशे में अपना ही चेहरा
हो गया ज़माना यह अंधा और बहरा
घर पर ही अपनापन विधवा सा डोल रहा
घट-घट में मधुरस के साथ जहर घोला
यह टूटा आदमी है भीड़ में अकेला।

घेरे में दौड़ रहा कोल्हू का बैल रे
धरती तो बहुत चला रूठ गई गैल रे
अपने ही कांधे पर अपनी ही लाश लिए
सर्कस में दौड़ कर नया खेल खेला
यह टूटा आदमी है भीड़ में अकेला।

बिजली के बर्तन में खून भरी खीर
भूखा मन भेड़िया हो रहा अधीर
संत्रासित जीवन पर ग्रहण जो अभावों का
गहराया अंधकार पी गया उजेला
यह टूटा आदमी है भीड़ में अकेला।

- शिव नारायण जौहरी 'विमल'
  भोपाल (म. प्र.), भारत
  ई-मेल: madhupradh@gmail.com

 

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