हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।
फ्रॉक (कथा-कहानी)    Print  
Author:कीर्ति चौधरी
 

फ्रॉक

नीम के फूल हवा के हर झोंके से झर रहे थे। बीच-बीच में पकी निबकौड़ियाँ गिरतीं--टप-टप, टप-टप। गर्द का एक झोंका उठता तो सब कुछ अपने में समेट लेता। बाहर का दृश्य कुछ इतना सुखकर नहीं था कि मैं खस की टट्टी खिसकाए यों ही झाँकती रहती। मैंने आँखें उस ओर से घुमाई ही थीं कि सामने के मकान वाली पड़ोसन की मँझली लड़की आरती उर्फ अरों ने बड़े क्रोध में दरवाज़े खोले और भुनभुनाते हुए बाहर निकली--"अम्मा सम्मा दम्मा" और फिर धम् से वहीं दहलीज़ पर बैठकर उसने सुबकना शुरू किया--"हुँः हुँः, पूरा स्कूल तो जा रहा है। मुझे ही नहीं जाने देतीं। हुँ:-हुँः, फिर स्कूल क्यों भेजती हैं? कल से पढ़ने नहीं जाएँगे। क्यों जाएँ? क्यों पढ़ें?" और फिर ऊं ऊं अर्थात् रुदन।

पर अंदर से कोई प्रत्युत्तर नहीं आया। रो-धोकर वह अपने आप ही शांत हो गई। आँखें मलते हुए उठकर उसने अपने फ्रॉक की गर्द झाड़ी, दार्शनिक की भाँति थोड़ी देर तक झूमते हुए पेड़ की ओर देखती रही। फूलों का एक अधसूखा गुच्छा ज़मीन पर पड़ा था, उसने उठाकर सूँघा, फिर नाली में फेंक दिया। बिलकुल ठीक दोपहर थी। एकदम सुनसान। बरामदे के आगे पड़े पानी में पड़ोस की पालतू कुतिया बैठी जीभ निकाले हाँफ रही थी। अरों ने लोने लगी दीवाल से एक बहुत बड़ा पपड़ा उखाड़कर उसकी ओर फेंका, पर कुतिया टस से मस न हुई। तभी पीछे से भारती उर्फ भरों ने चुपके से आकर कहा--"जिज्जी! इमली।" और अपनी छोटी-सी हथेली सामने फैला दी। जिज्जी को इमली का कोष सौंपकर वह ज़मीन पर पड़ी निबकौड़ियाँ बीनने लगी। तभी जिज्जी का ऑर्डर हुआ--"घर से नमक ले आओ।"

निबकौड़ियाँ बीनना छोड़कर भरों ने कहा--"अम्मा जग जाएगी तो?" "जग जाए, जग जाए, हज़ार दफा जग जाए। बहुत अच्छा है।" भरों ने फिर कोई विवाद नहीं किया। पैजनियाँ सँभालती घर के अंदर चली गई।

आरती वैसे ही निरुद्देश्य मुद्रा में खड़ी रही।

"ए आरती, हम नुमाइश नहीं जा रहे हैं।" आवाज़ आई। "हम भी नहीं जा रहे हैं।" आरती ने अकस्मात् मुस्कराकर कहा। और फिर दोनों सहेलियाँ गले में हाथ डालकर बातें करने लगीं।

भरों बहुत देर के बाद लौटी तो उसके साथ और भी लड़कियाँ थीं। अब एक अच्छी-खासी पंचायत जुड़ी।

एक बोली- "मीरा मिश्रा बड़ी शानियल हैं। हम कल बेंच पर बैठ गए तो बोलीं- 'भाई, गरमी बहुत है। दूर-दूर बैठो।' परसों जब सवाल पूछने थे तब तो 'माया बहेन जी.. माया बहेन जी इतनी मतलबिन हैं कि कुछ

न पूछो। आता-जाता कुछ नहीं। शान पौवा भर की। बस, रोज़ रेशमी फराकें पहिन-पहिन के आती हैं। बहुत अमीर बनती हैं। सवाल तो हमसे नकल करती हैं। हम तो कल खुट्टी कर लेंगे। आरती, तुम भी करना।"

आरती उर्फ अरों ने इमली खाते हुए कहा- "परसों नैने बहन जी ने कुर्सी पर खड़ा कर दिया तो बहुत मज़ा आया। हमने दूसरे पीरियड में पूछा, 'नकल क्यों किया था?' तो कहने लगीं, 'हमने नकल थोड़े ही किया था।' इतनी झुट्ठी हैं कि क्या बताएँ। आरती की छोटी बहन भारती उर्फ भर्री दोनों गालों पर हाथ धरे बड़े ध्यान से वार्ता सुन रही थी। बोली--"झूठ बोलना कितनी बुरी बात होती है, जिज्जी ऐ...?" झूठ बोलना बुरी बात होती है, पर चोरी करना उससे भी बुरी बात है। जो चुराता है, भगवान् जी उसको तेल की कढ्या में डालकर जला देते हैं। क्यों न! छड़ी से पीटते जाते हैं। कहते हैं, 'बोलो, फिर करोगे चोरी? फिर करोगे चोरी'?" छोटी चित्रा ने अपने संचित ज्ञानकोष को खोलकर अनुमोदन किया।

"हम तो भैया कभी खराब काम नहीं करते हैं। कभी हो गया तो सात बार भगवान् जी का नाम ले लिया। बस, सब ठीक। भगवान् जी माफ कर देते हैं। रोज़ सिंहासन पर फूल भी चढ़ाते हैं।"

आरती उर्फ अरों ने इमली में नमक लपेटते हुए कहा- "मीरा मिश्रा को तो भगवान् जी ज़रूर तेल की कढ़या में डाल देंगे।"

भरों ने कुछ दयनीय मुद्रा बनाकर कहा- "फिर जिज्जी स्कूल कैसे जाएगी ?" "धत् पगली, अभी थोड़े ही। उस जनम में, जब मर जाएगी।"

भरों इस उत्तर से आश्वस्त होकर इमली खाने के कार्य में जिज्जी का हाथ बँटाने लगी।

इतने में माया के छोटे भाई साहब लट्टू नचाते हुए आए--"ए चिथला ! ए चिथला, पकौली खाओगे ?" और चित्रा की चोटी घसीटते हुए अंदर दाखिल हो गए। चित्रा इस आकस्मिक हमले के लिए बिलकुल तैयार नहीं थी। पहले तो उसे कुछ समझ में नहीं आया। जब समझी तो पल-भर को रोने के मूड में आई, फिर उसकी व्यर्थता जान तुरंत बदला लेने को घर में दौड़ी।

"नमस्ते आरती "नमस्ते माया अरे, यही तुम लोगों के घर हैं क्या?"

देखा-एक अजनबी सुंदर-सी लड़की खूब साफ-सुथरे कपड़े पहने नौकर का हाथ पकड़े खड़ी है। बाल दो वेणियों में गुँथे हुए आकर्षक ढंग से बँधे हैं। हाथ में एक किताब। वह मुस्कराते हुए आगे बोली- "हम तो लखनऊ जा रहे हैं, नुमाइश देखने। डैडी के साथ। परसों स्कूल से लड़कियाँ जाएँगी न वहीं पर मिल जाएँगे। तुम भी तो आओगी न, आरती ? बहुत अच्छी है नुमाइश।

लड़की बड़े उत्साह में थी और बातूनी भी मालूम पड़ती थी। वह बार-बार अपनी फ्रॉक ठीक करती थी और कौतूहल से उन लड़कियों की ओर देख रही थी कि साथ के नौकर ने टोका- "चलो बेबी, बाबू जी स्टेशन पर रास्ता देखते होंगे।"

"अच्छा-अच्छा, नमस्ते।" लड़की हँसती हुई चल दी। चबूतरे पर फिर से बैठते हुए भरों ने क्षण-भर के बाद कहा- "परसों तो जुलाई का टेस्ट है। कौन जाएनुमाइश देखने। हमें क्या पढ़ना नहीं है?"

और फिर जैसे उसकी बात अधूरी रह गई हो, उसने माया की ओर देखा। माया ने उपेक्षा में मुँह बिचकाया। तभी भरों बड़े हुलास से बोली- "ए जिज्जी, मीरा मिश्रा की फिराक कितनी अच्छी थी !"

अपनी फ्रॉक के मद्धिम पड़ गए फूलों की ओर देखते हुए आरती ने बड़े निश्चय के स्वरों में कहा- "इस पर स्कूल में रोशनाई ढुलका देंगे। बस, सब शान धरी रह जाएगी। बहुत बनती है।" छोटी-छोटी लड़कियों में ऐसा ध्वंसात्मक विचार प्रश्रय न पाए, यह सोचकर मैंने उनमें से एक को पुकारा, पर मेरी आवाज़ सुनते ही पूरी टोली उड़न-छू हो गई।

-कीर्ति चौधरी
[अप्रैल 1958 में आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित]

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