भाषा राष्ट्रीय शरीर की आत्मा है। - स्वामी भवानीदयाल संन्यासी।
सांप (कथा-कहानी)    Print  
Author:डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav
 

तड़ातड़ तीन लाठियाँ पड़ीं, सांप तड़फकर वहीं ढेर हो गया।

एक बोला—“मैंने ऐसे जमा कर लाठी मारी थी कि टिकते ही सांप के प्राण निकल गए।”

“तुम्हारी लाठी ठीक जगह नहीं लगी थी। सांप मरा तो मेरी लाठी से था।” दूसरा बोला।

“तुम दोनों झूठ बोल रहे हो।” तीसरे ने कहा—“यदि मेरी लाठी न टिकती, तो सांप मरता ही नहीं। तुम्हारी लाठियां खाकर तो सांप उलटा काटने लपका था।”

“झूठ!” एक साथ पहले दोनों के मुख से निकला। फिर एक बोला—“सांप को मारा हमने और श्रेय तुम लेना चाहते हो!”

“यह बिल्कुल नहीं होगा।” दूसरा बोला।

तीसरा बोला—“न होगा, तो न सही। सांप तो मैंने ही मारा है।”

बात बढ़ी, बात बिगड़ी। थोड़ी देर पहले जो लाठियां सांप पर चली थीं, वे अब एक-दूसरे पर चल रही थीं। एक का सिर फूटा, दूसरे की बाजू टूटी, तीसरे को भी गंभीर चोटें आईं। तीनों पड़े तड़फ रहे थे।

मरे हुए सांप ने तीनों को डस लिया था।

-डॉ॰ रामनिवास मानव

Back
 
 
Post Comment
 
  Captcha
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश