अकबर से लेकर औरंगजेब तक मुगलों ने जिस देशभाषा का स्वागत किया वह ब्रजभाषा थी, न कि उर्दू। -रामचंद्र शुक्ल

रह जाएगा बाकी... (काव्य)

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रचनाकार: नमिता गुप्ता 'मनसी'

एक न एक दिन खत्म हो जाएंगे ये रास्ते भी
रह जायेगा बाकी..'मिलना' किसी का ही !

यूं तो कह ही दिया था 'सब कुछ'.. बहुत कुछ
रह जायेगा बाकी..'किसी' से 'अनकहा' ही !

टालते कब तक, दहलीज से गुजरना ही पड़ा
रह जायेगा बाकी..किसी की राह तकना ही !

ठोकरें कुछ वक्त ने दी, खुद नासमझ से भी रहे
रह जायेगा बाकी..मेरा गिरकर संभलना ही !

एक दौर था वो, बहकर उसी में साथ चल दिए
रह जायेगा बाकी..मेरा खुद का 'ठहरना' ही !

लिखते रहे खुद को, कोई किस्सा समझकर ही
रह जायेगा बाकी..वो दिल का 'न कहना' ही !

यूं ही उम्र कटती रही, जीते रहे 'रिश्तें' सभी
'मनसी', रह जायेगा बाकी..हद से गुजरना ही !

नमिता गुप्ता 'मनसी'
उत्तर प्रदेश, मेरठ
ई-मेल : namitagupta2873@gmail.com

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