प्यार भरी सौगात नहीं यह, कुदरत का अतिपात हुआ है ।
ओले बनकर धनहीनों के, ऊपर उल्कापात हुआ है।।
फटे चीथड़ों में लिपटों पर, बर्फीली आँधी के चलते,
पत्थर बरस रहे धरती पर, साधारण बरसात नहीं है।
ऐसे में सड़कों पर सोना, सबके बस की बात नहीं है।।
पग पथ बना बिछौना जिनका, आसमान ही रहा रजाई।
बेशक आँख मुँदी हो लेकिन, नींद कभी भरपूर न आई।।
फुटपाथों पर सोनेवालों के बारे में कुछ तो सोचो,
जिन पर छत क्या दीवारों सी टूटी फटी कनात नहीं है।
उस पर जीवन राग पिरोना, सबके बस की बात नहीं है।।
अपने खून पसीने से जो, गीले करते महल बगीचे।
पड़े हुए हैं उच्च भवन के, सम्मुख खुले गगन के नीचे।।
भार सरीखा जीवन ढोते, पूस मास में भीग रहे हैं ,
तुमने कहा क्षणिक बारिश है, कोई बज्राघात नहीं है।
पानी में फिर नाक डुबोना, सबके वश की बात नहीं है।।
भरी ठण्ड में यूँ चौरस में, आना स्वत: सिहर जाना है।
उस पर एक बूँद पड़ जाना, तन पर विकट कहर ढाना है।।
जैसे ठण्ड सताती तुमको, वैसे ही इनको भी समझो,
हाड़ माँस के ये पुतले हैं, लोहा या इस्पात नहीं है।
जड़काले में बदन भिगोना, सबके वश की बात नहीं है।।
उत्पातों की बस्ती है यह, घात और प्रतिघात यहाँ हैं।
षडयन्त्रों की होड़ मची है, मारकाट आघात यहाँ हैं।।
करुणा दया दूर की बातें, हृदयहीन क्रूरता बढ़ी है,
किसको कौन मात दे देगा, ज्योतिष तक को ज्ञात नहीं है।
ऐसे में हँस हँस कर रोना, सबके वश की बात नहीं है।।
रोटी रूठी भूख मगन है, पानी पीना भी मुश्किल है।
मजबूरी में मरना मुश्किल, जीवन जीना भी मुश्किल है।
साँस बचाने की कोशिश में, हवा निगलना भी संकट है,
लोहे के कटकटे चने हैं, जगन्नाथ का भात नहीं है।
इन्हें चबाना और पचाना, सबके वश की बात नहीं है।।
जिनको पूस जेठ सा लगता, और चैत्र सावन लगता है।
जिनको माघ क्वार दिखता है, फागुन सा अगहन लगता है।।
उनसे बात करोगे तो फिर, उल्टा ही उत्तर पाओगे,
वे खुशियों की बात करेंगे, कहीं कुठाराघात नहीं है।
दुनिया के दुखड़ों पर रोना, सबके वश की बात नहीं है।।
आखिर कहाँ विकास रुका है अटकी हुई कहाँ पर गाड़ी।
किसकी ओर निगाहें चिपकी, बनते बहुत अबोध अनाड़ी।।
चालाकों की इस दुनिया के अरे बादशाहो तुम सुन लो,
मानव की मजबूत कड़ी यह, भूतों की बारात नहीं है।
शोषित होकर पोषित होना, सबके वश की बात नहीं है।।
गिरेन्द्रसिंह भदौरिया "प्राण"
इन्दौर (म.प्र.), भारत
ई-मेल : prankavi@gmail.com