हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

प्रणम्य काशी (काव्य)

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Author: डॉ॰ सुशील शर्मा

(काशी पर कविता)

मृत्युञ्जय का घोष
परम् शिव की सत्ता से आप्लावित
काशी का शुभ्र शिखर
काशी भारतीय संस्कृति का
प्राचीनतम दूत।

सदियों से विश्व मस्तक पर
सनातन को सजाता है
सत्य जहाँ शिव में लय होता है
ज्ञान वैराग्य भक्ति के आलोक में
जहाँ नित्य गंगा का अविरल प्रवाह होता है।

नित वेदों का गान करते पक्षी कलरव
जो भूतल पर होने पर भी
संबद्ध नहीं है पृथ्वी से,
जो जगत की सीमाओं से
बंधी होने पर भी सभी का
बन्धन काटनेवाली (मोक्षदायिनी) है,
जो महात्रिलोकपावनी गंगा
के तट पर सुशोभित
तथा देवताओं से सुसेवित है,
उत्तरवाहिनी गंगा धारा
भष्मीभूत संपुरित धूल
ऋग्-यजु-साम-अथर्व गान
वैराग्य विशिष्ट विमल अन्तरलीन
काशी जहाँ मृत्यु मोक्ष में परिणित होती है
मणिकर्णिका की चिता ज्वाला में
आवाहित होती मृत्यु
कराती है जरा जीवन का अहसास।

हरिश्चंद्र से शंकराचार्य तक
सभी ने शिवरूप में किये हैं
सत्य के दर्शन।
विश्वरूप में ज्योतिर्लिंग में शिव
बसे हैं काशी के कण-कण में
माँ अन्नपूर्णा का शाश्वत स्नेह अविरल
सर्वत्र प्रवाहित वैदिक स्वर
काशी अंतस में
पुष्ट वैराग्य रूप
काशी जहाँ पर मरना मंगल है,
चिताभस्म जहाँ आभूषण है।

गंगा का जल ही औषधि है
सत्य धर्म जिसके चरण हैं।
गंगा के घाट जिसकी भुजाएं हैं
पावन गंगाजल जिसका शोणित है।
विश्वनाथ जिसका हृदय है
संकटमोचन जिसका कवच है
माँ अन्नपूर्णा जिसका चेतन है।
चिदानंद, चिन्मयी, शिवलोक
काशी सदा अविनाशी
प्रणम्य शिव
नमन काशी।

-डॉ॰ सुशील शर्मा

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