वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। - मैथिलीशरण गुप्त।

तेरा रूप | षट्पद (काव्य)

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Author: गुरुराम भक्त

देखा है प्रत्यंग तुम्हारा, जो कहते थे;
जो सेवक-से साथ सर्वदा ही रहते थे;
जो अपने को बता रहे अवतार तुम्हारा;
जो कुछ हो तुम वही, कहें जो मैं हूँ सारा;
'भक्त' नहीं क्या विषय यह, अद्भुत और अनूप है,
समझ सके वे भी नहीं, कैसा तेरा रूप है !

-गुरुराम भक्त 'विशारद'

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