घुमड़-घुमड़ नभ में घन घोर, 
छा जाते हैं चारों ओर
विमल कल्पना से सुकुमार 
धारण करते हो आकार! 
अस्फुट भावों का प्राणों में, 
तुम रख लेते हो गुरु भार!!
उन भावों का रूप सजीव, 
तुम में होता प्रगट अतीव
विविध विमल रंगों में तान, 
किसके उर के प्रिय उद्गार, 
तुम से उद्गम हो जाते हैं, 
हे अजान ! निश्छल अविकार?
तुम हो किसकी छवि का रूप, 
अहे अभिनव ! मेरे अनुरूप?
मैं हूँ तुम सा ही अज्ञान, 
मुझे नहीं है अपना ज्ञान, 
नहीं जानता किसकी छविका, 
सार मिला है मुझको दान!
-मंगलप्रसाद विश्वकर्मा
