जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

ओ मेरी साँसों के दीप ! (काव्य)

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Author: अशोक दीप

विश्व सदन की जोती बनकर
जले सदा तू तारों बीच ।
है बस जीवन साध यही अब
ओ मेरी साँसों के दीप !

चंद्र-कलश हाथों में लेकर
सुधा- चूर्ण बरसाओ नभ से
तरल तुहिन शीतलता धरकर
दग्ध विषाद मिटाओ जग के

दीपित होकर भव- कोशो में
आलोक पुँज रजत कण भरदो
गहन तमस के तुंग शिखर को
अमल-धवल शुभ हिमगिरि करदो

मधुर प्रभा की प्याली को तुम
रजनी पर दो आज उलीच ।
है बस जीवन साध यही अब
ओ मेरी साँसों के दीप !

उत्पीड़ित उत्कंठाओं को
मोदमयी मणियों की लड़ दो
अलसित आनन की आँखों में
मुस्कानों के मोती जड़ दो

आशाओं के अधरों पर अब
विश्वासों का चुम्बन धरदो
सुस्मित सुषमा की लहरों से
पूरित जीवन जलनिधि करदो

शैकत शैय्या पर बिखराओ
सागर तल से लाकर सीप
है बस जीवन साध यही अब
ओ मेरी साँसों के दीप !

जलते मन की तप्त शिला पर
बनकर तुम निर्झर नीर बहो
शुभ्रशिखा की मधुरिम लौ से
धुमायित उर की पीर दहो

श्यामल घन के निर्मल जल से
मानव मन तुम मज्जित करदो
कुन्द-कुसुम की पंखुड़ियों से
दीन धरा को सज्जित करदो

केशर- कुंकुम की खुशबू से
जगती का लो अन्तस् जीत ।
है बस जीवन साध यही अब
ओ मेरी साँसों के दीप !

-अशोक दीप
 जयपुर, भारत
 ई-मेल : ashokdeep178@gmail.com

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