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कथा-कहानी |
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां। |
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गरीब आदमी - वनफूल |
दोपहर की चिलचिलाती हुई धूप की उत्कट उपेक्षा करते हुए राघव सरकार शान से माथा ऊंचा किए हुए जल्दी-जल्दी पांव बढ़ाते हुए सड़क पर चले जा रहे थे। खद्दर की पोशाक, पैर में चप्पलें अवश्य थीं, पर हाथ में छाता नहीं; हालांकि वे चप्पलें भी ऐसी थीं और उनमें निकली हुई अनगिनत कीलों से उनके दो पांव इस तरह छिल गए थे कि उनकी उपमा शरशय्या पर लेटे हुए भीष्म पितामह से करना भी राघव सरकार के पांवों का अपमान होता, किन्तु शान से माथा ऊंचा किए हुए राघव सरकार को इसकी परवाह नहीं थी । वे पांव बढ़ाते हुए चले जा रहे थे। उन्होंने अपने चरित्र को बहुत दृढ़ बनाया था, सिद्धांतों पर आधारित मर्यादाशील उनका जीवन था, और इसीलिए हमेशा से राघव सरकार का माथा ऊंचा रहा, कभी झुका नहीं। उन्होंने कभी किसी की कृपा की आकांक्षा नहीं की, कभी किसी दूसरे के कन्धे के सहारे नहीं खड़े हुए, जहां तक हो सका दूसरों की भलाई की, और कभी अपनी कोई प्रार्थना लेकर किसी के दरवाजे नहीं गए। अपना माथा कभी झुकने ने पाए, यही उनकी जीवनव्यापी साधना रही है। |
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खेल - जैनेन्द्र कुमार | Jainendra |
मौन-मुग्ध संध्या स्मित प्रकाश से हँस रही थी। उस समय गंगा के निर्जन बालुकास्थल पर एक बालक और बालिका सारे विश्व को भूल, गंगा-तट के बालू और पानी से खिलवाड़ कर रहे थे। |
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इनाम - नागार्जुन | Nagarjuna |
हिरन का मांस खाते-खाते भेड़ियों के गले में हाड़ का एक काँटा अटक गया। |
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हम लोग | फीज़ी पर कहानी - जोगिन्द्र सिंह कंवल | फीजी |
"बिमल, सोचता हूँ मैं वापस चला जाऊं'', प्रोफेसर महेश कुमार ने निराशा भरे स्वर में कहा । |
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प्रवासी की माँ - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड |
(1) |
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ताई | कहानी - विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक |
''ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?" कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा। |
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मुल्ला नसरुद्दीन और बादशाह - भारत-दर्शन संकलन |
एक दिन बादशाह ने मुल्ला नसरुद्दीन से कहा, "आज सुबह मैंने अपनी सूरत आईने में देखी। मैं वाकई बदसूरत हूँ। अब कभी आईने में अपना चेहरा नहीं देखूंगा।" |
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29 दिसंबर की वह रात | संस्मरण - राजेश्वरी त्यागी |
29 दिसंबर की रात। लगभग साढ़े ग्यारह बजे हम भोपाल आकाशवाणी के केंद्र निदेशक श्री शुंगलू के यहाँ से खाना खाकर लौट रहे थे। |
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पत्रकार - विश्वंभरनाथ शर्मा कौशिक |
दोपहर का समय था। 'लाउड स्पीकर' नामक अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र के दफ्तर में काफी चहल-पहल थी। यह एक प्रमुख तथा लोकप्रिय पत्र था। |
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जितने मुँह उतनी बात - रोहित कुमार 'हैप्पी' |
एक बार एक वृद्ध और उसका लड़का अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव जा रहे थे। पुराने समय में दूर जाने के लिए खच्चर या घोड़े इत्यादि की सवारी ली जाती थी। इनके पास भी एक खच्चर था। दोनों खच्चर पर सवार होकर जा रहे थे। रास्ते में कुछ लोग देखकर बोले, "रै माड़ा खच्चर अर दो-दो सवारी। हे राम, जानवर की जान की तो कोई कीमत नहीं समझते लोग।" |
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हाथी की फाँसी - गणेशशंकर विद्यार्थी | Ganesh Shankar Vidyarthi |
कुछ दिन से नवाब साहब के मुसाहिबों को कुछ हाथ मारने का नया अवसर नही मिला था। नवाब साहब थे पुराने ढंग के रईस। राज्य तो बाप-दादे खो चुके थे, अच्छा वसीका मिलता था। उनकी ‘इशरत मंजिल' कोठी अब भी किसी साधारण राजमहल से कम न थी। नदी-किनारे वह विशाल अट्टालिका चाँदनी रात में ऐसी शोभा देती थी, मानो ताजमहल का एक टुकड़ा उस स्थल पर लाकर खड़ा कर दिया गया हो। बाहर से उसकी शोभा जैसी थी, भीतर से भी वह वैसी ही थी। नवाब साहब को आराइश का बहुत खयाल रहता था। उस पर बहुत रुपया खर्च करते थे और या फिर खर्च करते चारों ओर मुसाहिबों की बातों पर। उम्र ढल चुकी थी, जवानी के शौक न थे, किंतु इन शौकों पर जो खर्च होता, उसे कहीं अधिक यारों की बेसिर-पैर की बातों पर आए दिन हो जाया करता था। नित्य नए किस्से उनके सामने खड़े रहते थे। पिछला किस्सा यहाँ कह देना बेज़ा न होगा। यारों ने कुछ सलाह की और दूसरे दिन सवेरे कोर्निश और आदाब के और मिज़ाजपुर्सी के बाद लगे वे नवाब साहब की तारीफ में ज़मीन और आसमान के कुलाबे एक करने। यासीन मियाँ ने एक बात की, तो सैयद नज़मुद्दीन ने उस पर हाशिया चढ़ाया। हाफिज़जी ने उस पर और भी रंग तेज़ किया। अंत में मुन्ने मिर्जा ने नवाब साहब की दीनपरस्ती पर सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘खुदावंद, कल रात को मैंने जो सपना देखा, उससे तो यही जी चाहता है कि हुजूर के कदमों पर निसार हो जाऊँ और जिंदगी-भर इन पाक-कदमों को छोड़कर कहीं जाने का नाम न लूँ।'' |
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लैला | कहानी - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand |
यह कोई न जानता था कि लैला कौन है, कहाँ से आयी है और क्या करती है। एक दिन लोगों ने एक अनुपम सुंदरी को तेहरान के चौक में अपने डफ पर हाफ़िज की यह ग़जल झूम-झूम कर गाते सुना- |
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मतपेटी में जिन्न - सुनील कुमार शर्मा |
चुनाव प्रचार के बाद घर लौटे, एक थके-हारे नेता जी ने जब दो घूँट लगाने के लिए शराब की बोतल खोली; तो उस बोतल में से बहुत बड़ा जिन्न निकला, और बोला,"बोल मेरे आका! तुझे क्या चाहिए?" |
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दूरी - परमजीत कौर |
उस कंपकंपाती रात में वह फटी चादर में सिमट-सिमट कर, सोने का प्रयास कर रही थी । |
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साजिदा नसरीन - डॉ. वंदना मुकेश |
"हैलो, साजिदा..., हैलो, माफ़ कीजिएगा, आय एम साजिदाज़ टीचर...हाउ इज़ शी कीपिंग?" अगले छोर से कुछ अजीब सी फुसफुसाहट सी आई। फ़ोन पर किसी का नाम पुकारा गया, कुछ देर में फ़ोन पर किसी महिला की आवाज़ आई, "यस...," |
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संसार की सबसे बड़ी कहानी - सुदर्शन | Sudershan |
पृथ्वी के प्रारम्भ में जब परमात्मा ने हमारी नयनाभिराम सृष्टि रची, तो आदमी को चार हाथ दिये, चार पाँव दिये, दो सिर दिये और एक दिल दिया । और कहा-"तू कभी दुःखी न होगा । तेरा संसार स्वर्ग है।" |
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प्रश्न | लघुकथा - रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore |
बाप श्मशान से घर लौटा। |
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