एक बार एक युवक ईश्वरचंद्र विद्यासागर से मिलने आया। वह रेलगाड़ी से स्टेशन पहुंचा था। उसके पास एक सूटकेस था। स्टेशन पर कोई कुली न था। वह स्वयं सामान उठाना नहीं चाहता था। साहब लोग अक्सर अपना सामान स्वयं उठाने में अपमानित अनुभव करते थे। उसे बहुत गुस्सा आ रहा था।
"पता नहीं कैसा स्टेशन है?" वह गुस्से में बुदबुदाया।
उसी गाड़ी से एक अन्य व्यक्ति भी उतरा था। वह साधारण पोशाक में था। उसने आधी बाजू का कुर्ता, धोती और चप्पलें पहन राखी थी। वह आदमी उस परेशान युवक के पास आया और बोला, "क्या आपको कोई मदद चाहिए?"
युवक ने बताया कि उसे कोई कुली नहीं मिल रहा।
उसकी समस्या जानकार सामान्य-से दिखने वाले आदमी ने युवक का सूटकेस उठाकर चलने का प्रस्ताव किया। वह आदमी उस युवक का सामान स्टेशन से बाहर ले आया। युवक ने जब कुछ पैसे देने चाहे तो उसने बड़ी शालीनता से मना कर दिया। स्टेशन के बाहर कुछ बैलगाडियाँ खड़ी थीं। युवक बैलगाड़ी में प्रसन्नचित्त बैठ गया और अपने गंतव्य की ओर चल दिया।
अगली सुबह वह युवक ईश्वरचंद्र विद्यासागर के घर पहुंचा। घर के बाहर जो आदमी खड़ा था, यह वही आदमी था जिसने कल रात उसका सामान उठाया था। युवक ने पूछा, "क्या विद्यासागर जी यहीं रहते हैं?"
उस आदमी ने कहा, "जी हाँ, आइए अंदर बैठिए।"
युवक ने पूछा, "विद्यासागर जी कहाँ हैं?"
उस आदमी ने उत्तर दिया, "जी कहिए क्या काम है.. मैं ही ईश्वरचंद विद्यासागर हूँ।"
युवक यह सुनकर सन्न रह गया। उसने ईश्वरचंद्र जी से क्षमा मांगी। बोला,"कल मुझसे भूल हुई। अब मैं समझ गया कि कोई कम छोटा-बड़ा नहीं होता। अपना काम स्वयं करना चाहिए।"
विद्यासागर सहजता से मुस्कुरा दिए।
ईश्वरचंद विद्यासागर ने बिना कुछ बोले युवक को जीवनभर के लिए स्वावलंबन की सीख दे दी थी।
प्रस्तुति: रोहित कुमार 'हैप्पी' [भारत-दर्शन संकलन] |