यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला;
ढहा और तन टूट चुका है,
पर जिसका माथा न झुका है;
शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाए विजय पताका-
यह कवि है अपनी जनता का!
यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला;
ढहा और तन टूट चुका है,
पर जिसका माथा न झुका है;
शिथिल त्वचा ढल-ढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाए विजय पताका-
यह कवि है अपनी जनता का!
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