जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

मूर्ख साधू और ठग (बाल-साहित्य )

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रचनाकार: विष्णु शर्मा

किसी गाँव के मंदिर में एक प्रतिष्ठित साधू रहता था। गाँव में सभी उसका सम्मान करते थे। उसे अपने भक्तों से दान में तरह-तरह के वस्त्र, उपहार, खाद्य सामग्री और पैसे मिलते थे। उन वस्त्रों को बेचकर साधू ने काफी धन जमा कर लिया था।

साधू कभी किसी पर विश्वास नहीं करता था और हमेशा अपने धन की सुरक्षा के लिए चिंतित रहता था। वह अपने धन को एक पोटली में रखता था और उसे हमेशा अपने साथ लेकर चलता था।

उसी गाँव में एक ठग रहता था। बहुत दिनों से उसकी निगाह साधू के धन पर थी। ठग हमेशा साधू का पीछा किया करता लेकिन साधू उस पोटली को कभी अपने से अलग नहीं करता था।

ठग ने एक योजना बनाई। उसने एक छात्र का वेश धारण किया और साधू के पास जाकर आग्रह किया कि वह उसे अपना शिष्य बना ले क्योंकि वह ज्ञान प्राप्त करना चाहता है। साधू तैयार हो गया। इस प्रकार वह ठग साधू का शिष्य बनकर मंदिर में रहने लगा।

ठग मंदिर की साफ सफाई सहित अन्य सभी काम करता था। ठग ने साधू की भी खूब सेवा की और जल्दी ही उसका विश्वासपात्र बन गया।

एक दिन साधू को पास के गाँव में एक अनुष्ठान के लिए आमंत्रित किया गया। साधू निश्चित दिन अपने शिष्य के साथ अनुष्ठान में भाग लेने के लिए निकल पड़ा।

रास्ते में एक नदी पड़ी और साधू ने स्नान करने की इच्छा व्यक्त की। उसने अपने धन वाली पोटली को एक कम्बल के भीतर रखा और उसे नदी के किनारे रख दिया। फिर ठग को सामान की रखवाली की आज्ञा देकर स्वयं नदी में स्नान करने चला गया। ठग को तो कब से इसी समय की प्रतीक्षा थी। जैसे ही साधू ने नदी में डुबकी लगायी, ठग साधू की पोटली लेकर चम्पत हो गया।

[पंचतंत्र]

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