दुनिया के दिखावे में तमाशे में नहीं जाऊं,
आंधियों से दीयों को बचाने में नहीं जाऊं।
मुलाक़ात अगर हो तो कभी रु-ब-रु बोलूं,
क़ैद हो के कहीं भी लिफ़ाफ़े में नहीं जाऊं।
या तो होना है या होना ही नहीं उसका,
मैं दो चार क़दम भी दिलासे में नहीं जाऊं।
मैं पूरी ना कर सकूं, जो बच्चों की ज़रूरतें,
इतना भी ऐ ख़ुदा, ख़िसारे में नहीं जाऊं।
जब अहसास ही नहीं है, मेरे वजूद का,
किसी का कोई छप्पर उठाने में नहीं जाऊं।
जब हाल ही नहीं पूछा, बीमार शख्स का,
मैं सोचता हूं, उसके जनाज़े में नहीं जाऊं।
वो खुद ही गिर गया अलग बात है 'ज़फ़र',
कुल्हाड़ी से कोई पेड़ कटाने में नहीं जाऊं।
-ज़फ़रुद्दीन 'ज़फ़र'
दिल्ली -110032
ई-मेल : zzafar08@gmail.com