यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

प्राइवेसी (कथा-कहानी)

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रचनाकार: कल्पना मनोरमा

आवली के घर में गेस्टरूम की रिपेयरिंग का काम चल रहा था। रिश्तेदार आने की बात कहते तो मौरंग,गिट्टी और सीमेंट का पसारा पसरा है, बोल देती। एक दिन पति ने बताया—बड़ी दीदी का फोन आया था। वे आजकल में घर आना चाहती है। सुनते ही आवली भड़क पड़ी--"आपने क्या कहा?"

 "मैंने, वही कहा जो तुम कहती हो।”

 "तो फिर क्या बोलीं वे?”

 "बोलना क्या...सही तो कहा दीदी ने…वे क्या मेहमान हैं?” पति ने थोड़े रौब से कहा।

"सो व्हाट? हम क्या उन्हें अपना कमरा दे देंगे…?"

 आवली ने आँखें तरेरी तो पति ने ही शांत रहने में भलाई समझी, "अच्छा ठीक है, मैं दीदी से कुछ कह दूँगा।" कहकर बात रफादफा हो गयी। पति ने अभी पीठ फेरी ही थी कि आवली का फोन बज उठा।

 

"पम्मी कॉलिंग" देखते ही आवली का मन मोर की तरह नाच उठा। उसने झट से फोन उठा लिया।

"बोल बेटा..! क्या हाल है तेरा और मेरी बिट्टो कैसी है?"

"मम्मा हम सब ठीक है लेकिन आपकी बिट्टो जिद लगाए बैठी है कि उसको नानी के घर जाना है।"

"तो इसमें इतना सोचना क्या? तेरा ही घर है। कभी भी आओ-जाओ पम्मी।"

"अच्छा ठीक है मम्मा, मैं तैयारी करती हूँ।"

"हाँ ठीक है आ जा।" कहते हुए आवली सीधे बेटे के पास चली गई। पति भी वहीं अख़बार पढ़ रहे थे। आवली बेटे की ओर मुखतिब होकर ही बोली।

"सुन हितेन! कल तेरी दीदी और जीजा जी आ रहे हैं। तू न…।"

"ओ गॉड अभी...ऐसी सिचुएशन में?" बेटे ने माँ की बात बीच में काटते हुए कहा।

"हाँ अभी, तो क्या हुआ? अपने घर आ रही है।”

"सो व्हाट? तो क्या मैं उन्हें अपना कमरा दे दूँगा...कभी नहीं?" बेटा बोल पड़ा।

आवली ठगी-सी कभी पति का चेहरा देखती रही तो कभी बेटे का लेकिन शब्द होठों पर जड़ हो चुके थे।


-कल्पना मनोरमा

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