“देख संगीता, मैं बाज़ार से यह सलेक्स ले आई हूँ। तुम कल कह रही थी न कि तुम्हारी पीली वाली सलेक्स खराब हो गई है? इसलिए यह ले आई।”
संगीता के चेहरे पर जरा भी खुशी नहीं आई। उसने पूछा, “कितने की है यह सलेक्स?”
सासू माँ बोलीं, “छ: सौ पचास रुपये की।”
संगीता खीझकर बोली, “इतनी महँगी सलेक्स लाने की क्या ज़रूरत थी? मुझे नहीं चाहिए। कल वापस कर आइए।”
सासू माँ का चेहरा उतर गया। “ठीक है,” वे धीमे स्वर में बोलीं और उदास मन से अपने कमरे में चली गईं।
अभय यह सब देख रहा था। माँ के जाते ही बोला, “तुमने ठीक नहीं किया। सलेक्स रख लेती तो क्या हो जाता! अगर दुकान ने कल वापस न ली तो? माँ फिर बाजार जाएँगी, परेशान होंगी।”
संगीता मुस्कुराई, “आप देखते जाइए… वे कल बाज़ार नहीं जाएँगी।”
अभय कुछ समझ पाता, इससे पहले ही सासू माँ वापस कमरे में आईं। हाथ में वही सलेक्स थी। बोलीं, “बहू, कपड़ा बहुत अच्छा है, तुम इसे रख ही लो।”
संगीता ने कहा, “ठीक है, रख लेती हूँ… लेकिन आगे से मत लाइएगा।”
इतना सुनते ही सासू माँ बच्चों की तरह खिल उठीं, फिर बोलीं, “इस रिमझिम को देखो, मेरी एक नहीं सुनती! कल झाड़ू लगाते हुए कोनों में कूड़ा छोड़ दिया था। तुम इसे समझा देना—मेरी बात माने, वरना काम से निकाल दूँगी।” इतना कहकर वे रिमझिम को आवाज़ देती बाहर चली गईं।
संगीता रसोई की ओर बढ़ने लगी तो अभय बोला, “जब आखिर में सलेक्स रखनी ही थी तो पहले क्यों नहीं रख ली?”
संगीता हँस दी, “पहले रख लेती तो कल कुछ और नया ले आतीं।”
अभय बोला, “सच कहूँ, माँ के साथ निभाना आसान नहीं। तभी तो मेरा कोई भाई-बहन उन्हें अपने साथ नहीं रखना चाहता।”
संगीता ने पलटकर पूछा, “पर माँ को साथ नहीं रखेंगे तो बच्चों को दादी का प्यार कौन देगा? और वे रहेंगी कहाँ?”
अभय ने कहा, “फिर तुम दोनों सारा दिन नोकझोंक क्यों करती रहती हो? तुम माँ के हर काम में मीन-मेख निकालती हो।”
संगीता बोली, “देखिए, बच्चे और बुज़ुर्ग एक जैसे होते हैं। जितनी बात मानो, माँगें उतनी बढ़ती जाएँ। कई बार रोक लगानी पड़ती है। ...लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि उनके साथ न रहा जाए। यही तो मेरे हिस्से का घर-परिवार है।”
अभय बोला, “माँ हर किसी में कमी निकालती रहती हैं। रिमझिम तो उनसे बहुत परेशान है। तुम कह क्यों नहीं देतीं कि माँ अपने कमरे में बैठें, काम तुम संभाल लोगी?”
संगीता ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “उन्हें कमरे में बैठा दूँ ताकि वे डिप्रेशन में चली जाएँ? वे घर में घूमती रहती हैं, रिमझिम पर नज़र, बच्चों से बातें… इससे उनका मन भी लगा रहता है और बोलने का कोटा भी पूरा।”
तभी बाहर से सासू माँ की आवाज़ आई, “आज पति घर पर है तो क्या मुझे और मेरे पोते-पोती को खाना बनाकर भी नहीं दोगी? व्रत रख लें हम?”
संगीता ने भी उसी अंदाज़ में कहा, “हाँ-हाँ, आ रही हूँ। आप तो पूरा दिन मुझ पर नज़र रखा कीजिए!”
वह उठी, पति की ओर देखते हुए मुस्कुराई और दरवाज़े की ओर इशारा करके बोली—“मेरे हिस्से का घर-परिवार!”
-रेखा वशिष्ठ मल्होत्रा, भारत
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