अपने घर में बना मेहमान जो बाशिन्दा है,
मुक्त आकाश का वो परकटा परिन्दा है।
अब तो जंगल की राह लो सुना है बस्ती में,
भेड़ की खाल में रहने लगा दरिन्दा है।
भीड़ जलसे में जुटाई गई है यह कह कर,
जो बात आज कही जाएगी चुनिन्दा है।
ये राह उसकी नहीं है उसे आगाह करो,
पगों में चुभ रहे कांटों से जो शर्मिन्दा है।
निकल पड़े हैं खुली धूप में तो याद रहे
घनेरे पेड़ों का साया हसीन फंदा है।
लगा के ले गए जिसको वो अपनी अचकन में,
जेहन में माली के अब तक वो फूल ज़िंदा है।
-डॉ. कुँवर वीरेन्द्र विक्रम सिंह गौतम