जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

विनीता तिवारी की दो ग़ज़लें (काव्य)

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Author: विनीता तिवारी

भरा ख़ुशियों से है आँगन कि होली आई रे आई।
भिगोया इश्क़ ने तन-मन कि होली आई रे आई।

उठा लेते हैं वो आकाश सर पे रंग डालो तो,
मधुर सी हो गई अनबन कि होली आई रे आई।

हरा, पीला, गुलाबी लाल अनगिन रंग हैं बिखरे,
निखरता जा रहा यौवन कि होली आई रे आई।

खनकती झांझरे, चूड़ी, थिरकते पाँव तालों पर,
न माने दिल कोई बंधन कि होली आई रे आई।

छुड़ा लेते हैं वो दामन किसी मीठे बहाने से,
उलझ जाती है पर धड़कन कि होली आई रे आई।

कहीं गुझियों भरी थाली, कहीं ठंडाई का आलम,
बहकता जा रहा मधुबन कि होली आई रे आई।

ज़रा सा थाम के बाँहें, नज़र भर देख लेने दो,
हटा दो आज तो चिलमन, कि होली आई रे आई।

नगाड़े ढोल तासे बज रहें हैं रंग भी बिखरा,
धरा लगने लगी दुल्हन कि होली आई रे आई।

#

चलो जी आ गई होली, करूँ जो काम बाक़ी है।
किसी को दिल का, दिल से भेजना पैग़ाम बाक़ी है।

नशा बाक़ी, मज़ा बाक़ी, गुल-ओ-गुलफ़ाम बाक़ी है
कोई उम्दा ग़ज़ल कहकर लगाना दाम बाक़ी है।

सजा संवरा सा चहरा है निकल जाए न हाथों से
लगाकर रंग गालों पर पिलाना जाम बाक़ी है।

बना डाली जलेबी, दूध की ठंडाई और गुझियाँ
सफ़ाई हो चुकी घर की, बस अब आराम बाक़ी है।

किसी मीठे बहाने से कभी मिल आएँ हम उनसे
भिगोकर इश्क़ में तन मन बितानी शाम बाक़ी है।

चलो होली के रंग में घोल डाले कुछ शरारत भी
मेरी दीवानगी पर इक अभी इल्ज़ाम बाक़ी है।

कहीं चलती है पिचकारी कहीं कोड़ा कहीं गाली
नज़र से चल रहे हैं तीर, कत्ल-ए-‘आम बाक़ी है।

विनीता तिवारी
वर्जीनिया, अमेरिका

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