यूँ कहने को बहकता जा रहा हूँ
मगर सच में सँभलता जा रहा हूँ
उलझता जा रहा हूँ तुझमें जितना
मैं उतना ही सुलझता जा रहा हूँ
भले बाहर से दिखता हूँ मचलता
मगर भीतर ठहरता जा रहा हूँ
ज़मीं से पाँव भी उखड़े नहीं हैं
फ़लक तक भी मैं उठता जा रहा हूँ
नदी इक मुझमें मिलती जा रही है
मैं सागर-सा लहरता जा रहा हूँ
-नरेश शांडिल्य