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अलका सिन्हा | Profile & Collections
अलका सिन्हा का जन्म 9 नवम्बर 1964 को भागलपुर, बिहार में हुआ।
आपने एम.बी.ए., अर्थ शास्त्र में एम.ए. के अतिरिक्त केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो, गृह मंत्रालय द्वारा संचालित अनुवाद प्रशिक्षण में पी.जी.डी.टी किया है। अनुवाद प्रशिक्षण में आपको रजत पदक किला हुआ है।
सृजन :
कविता-संग्रह:
'काल की कोख से', 'मैं ही तो हूँ ये' (पुरस्कृत), 'तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ'।
कहानी-संग्रह :
'सुरक्षित पंखों की उड़ान', मुझसे कैसा नेह और खाली कुरसी।
उपन्यास :
जी-मेल एक्सप्रेस।
विधाएँ :
कविताएँ, कहानियाँ, उपन्यास और समीक्षात्मक निबंध। आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं तथा आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से प्रसारित हुई हैं।
आपकी कविताओं के पंजाबी और उर्दू अनुवाद देश-विदेश की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा द्वारा दर्जनों कहानियाँ नेपाली में अनूदित और प्रसारित हुई हैं। प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूलों के हिंदी विषय के पाठ्यक्रम में कहानी सम्मिलित।
विशिष्ट गतिविधियाँ :
दिल्ली दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रम 'पत्रिका' की विशिष्ट शृंखलाओं की प्रस्तोता।
आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा में पूर्व हिंदी उद्घोषक।
गणतंत्र दिवस परेड का आँखों देखा हाल सुनाने का गौरव।
एयरलाइंस कर्मियों को उद्घोषणा संबंधी जानकारी देने के लिए आयोजित वॉइस कल्चर ट्रेनिंग में फैकल्टी पर्सन।
एनसीईआरटी के श्रव्य दृश्य शिक्षण कार्यक्रमों का प्रस्तुतीकरण।
अंतर्राष्ट्रीय लेखन से जुड़ी हिंदी की साहित्यिक पत्रिका 'अक्षरम् संगोष्ठी' की सह-संपादक (मानद और अवैतनिक) केंद्रीय सचिवालय हिंदी परिषद की पूर्व 'साहित्य एवं संस्कृति मंत्री'।
सम्मान :
कविता-संग्रह 'मैं ही तो हूँ ये' पर हिंदी अकादमी, दिल्ली सरकार द्वारा साहित्यिक कृति सम्मान, 2002
विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा 'कवि रत्न' की उपाधि, 2007
संप्रति :
एयर इंडिया में कार्यरत।
अलका सिन्हा 's Collection
Total Records: 5
जिंदगी की चादर
जिंदगी को जिया मैंनेइतना चौकस होकर जैसे कि नींद में भी रहती है सजग चढ़ती उम्र की लड़की कि कहीं उसके पैरों सेचादर न उघड़ जाए।
जन्मदिन मुबारक
बगल के कमरे से उठती हुई दबी-दबी हँसी की आवाज उसके कमरे से टकरा रही है। ये हँसी है या चूड़ियों की खनक! पता नहीं, शायद दोनों ही आवाजें हैं। इन आवाजों के सिवा है भी क्या उसकी दुनिया में! एक अंधेरा उसके चारों ओर गहराने लगा है। अंधेरा जितना गहरा होता जाता है, आवाज उतनी तेज होने लगती है, चिरपरिचित अंधेरा... अदृश्य आवाजें...। वह करवट बदलता है...बगल के पलंग से मां की चूड़ियाँ खनकती हैं, शायद माँ ने भी करवट बदली है। कितना साफ फर्क है, माँ की औेर भव्या की चूड़ियों की खनक में। अंधेरे में भी फर्क छुप नहीं पाता... चूड़ियों की छुन-छुन की आवाज ट्रेन की छुक-छुक की आवाज में बदलने लगती है और वह जा पहुंचता है उस मोड़ पर, जहां अपनी जिंदगी के अंधेरों से उसकी पहली मुलाकात हुई थी।
मैं करती हूँ चुमौना
कोहरे की ओढ़नी से झांकती है संकुचित-सी वर्ष की पहली सुबह यह स्वप्न और संकल्प भर कर अंजुरी में इस उनींदी भोर का स्वागत,मैं करती हूँ चुमौना।