जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी का जन्म 1 दिसंबर 1916 को रौहता गांव (ज़िला आगरा) में हुआ था। आपकी शिक्षा आगरा में ही हुई। इसके बाद शिक्षा विभाग में ही विभिन्न शहरों में सेवाएं दीं। 1978 में सेवानिवृत्त होने के बाद अपने पैतृक गांव आ गए। 1981 में आलोक नगर में आकर बस गए। आपका लेखन विद्यार्थी जीवन से शुरू हो गया था लेकिन सेवानिवृत्त होने पर आपने और अधिक साहित्य-सृजन किया।

बाल साहित्य में आपको विशेष महारत थी। इसी का परिणाम था कि बाल साहित्य के जानेमाने लेखक कृष्ण विनायक फड़के ने अपनी अंतिम इच्छा के रूप में अपनी शवयात्रा में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी का बालगीत ‘हम सब सुमन एक उपवन के' गाये जाने की इच्छा जताई थी।

द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने अपनी आत्मकथा 'सीधी राह चलता रहा' अपनी मृत्यु से केवल दो घंटे पहले ही पूरी की थी। इस आत्मकथा के पूरे होने के दो घंटे पश्चात ही 21 अगस्त 1998 को आपकी हालत बिगड़ी और आपका निधन हो गया। बाद में आपके बेटे डॉ० विनोद कुमार माहेश्वरी ने आपकी आत्मकथा संपादित कर पूरी की।

 

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एक हमारी धरती सबकी

एक हमारी धरती सबकी
जिसकी मिट्टी में जन्मे हम
मिली एक ही धूप हमें है
सींचे गए एक जल से हम।
पले हुए हैं झूल-झूल कर
पलनों में हम एक पवन के
हम सब सुमन एक उपवन के।।

रंग रंग के रूप हमारे
अलग-अलग है क्यारी-क्यारी
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वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो

वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
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उठो धरा के अमर सपूतो

उठो धरा के अमर सपूतो
पुनः नया निर्माण करो।
जन-जन के जीवन में फिर से
नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो।

नया प्रात है, नई बात है,
नई किरण है, ज्योति नई।
नई उमंगें, नई तरंगे,
नई आस है, साँस नई।
युग-युग के मुरझे सुमनों में,
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मूलमंत्र

केवल मन के चाहे से ही
मनचाही होती नहीं किसी की।
बिना चले कब कहाँ हुई है
मंज़िल पूरी यहाँ किसी की॥

पर्वत की चोटी छूने को
पर्वत पर चढ़ना पड़ता है।
सागर से मोती लाने को
गोता खाना ही पड़ता है॥

उद्यम किए बिना तो चींटी
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सत्य की जीत

"अरे ओ दुर्योधन निर्लज्ज!
अभी भी यों बढ़-बढ़कर बात।
बाल बाँका कर पाया नहीं
तुम्हारा वीर विश्व-विख्यात॥

किया था उसने भरसक यत्न
खींचने को मेरा यह वस्त्र।
सत्य के सम्मुख पर टिक सके
देर तक कब असत्य के शस्त्र॥

जानते तुम इसका न रहस्य
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मुन्नी-मुन्नी ओढ़े चुन्नी

मुन्नी-मुन्नी ओढ़े चुन्नी
गुड़िया खूब सजाई।
किस गुड्डे के साथ हुई तय
इसकी आज सगाई?

मुन्नी-मुन्नी ओढ़े चुन्नी
कौन खुशी की बात है!
आज तुम्हारी गुड़िया प्यारी
की क्या चढ़ी बरात है?

मुन्नी-मुन्नी ओढ़े चुन्नी
...

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