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राजेश्वर वशिष्ठ | Profile & Collections

राजेश्वर वशिष्ठ का जन्म 30 मार्च, 1958 को भिवानी (हरियाणा) में हुआ।
सम्प्रति : सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक में मुख्य प्रबन्धक
कृतियाँ :मुट्ठी भर लड़ाई (उपन्यास),
कविता देशांतर कनाड़ा ( कविताओं का अनुवाद )
सुनो वाल्मीकि (कविता संकलन)
ब्रह्मांड में स्त्री (कविता संकलन) शीघ्र प्रकाश्य
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां, लेख इत्यादि प्रकाशित
ई-मेल : rajeshwar_v@hotmail.com
फोन : 09674386400
राजेश्वर वशिष्ठ's Collection
Total Records: 7
कुंती की याचना
मित्रता का बोझ किसी पहाड़-सा टिका था कर्ण के कंधों परपर उसने स्वीकार कर लिया था उसे किसी भारी कवच की तरहहाँ, कवच ही तो, जिसने उसे बचाया था हस्तिनापुर की जनता की नज़रों के वार सेजिसने शांत कर दिया था द्रौणाचार्य और पितामह भीष्म कोउस दिन वह अर्जुन से युद्ध तो नहीं कर पायापर सारथी पुत्र राजा बन गया था अंग देश कादुर्योधन की मित्रता चाहे जितनी भारी हो पर सम्मान का जीवन तो यहीं से शुरु होता है!
वाल्मीकि से अनुरोध
महाकवि वाल्मीकि उपजीव्य है आपकी रामायणतुलसी से लेकर न जाने कितने हीप्रतिभावान कवियों ने अपने विवेक और मेधा सेइसे रचा है बार बाररामायण की कथा कितने ही रंगों और सुगंधों के साथबन गई है मानव जन जीवन का हिस्साहे आदि-कवि तुम्हें प्रणाम!महाकवि, मैं कवि नहीं हूँमुझमें बहुत सीमित है मेधा और विवेकइसलिए किसी चोर की तरह घुस रहा हूँ इस महाग्रंथ में और खोजना चाहता हूँ उन पात्रों कोजिन्हें आपने गढ़ा तो सही पर इतना अवसर नहीं दियाकि वे कह पाते अपने मन की बात!महाकवि, आपने उन्हें बना दिया इस रथ के पहियेंऔर कभी नहीं सुनी उनके रुदन की आवाज़सब देखते रहे रथ की ध्वजा उसका वैभव और उसकी गति किसने देखना चाहा उन गड्ढों को जो हर पल हिला देते थे इन पहियों का संतुलनफिर भी ये चलते रहे समानांतर आपके ही गंतव्य की ओर आप तो बस श्रीराम के ही सारथी बने रहे! महाकवि, मुझे क्षमा करनामैं विश्वकर्मा तो नहीं हूँ कि उन अचर्चित पात्रों के लिए रच दूं एक नया नगरपर हाँ, एक छोटा-सा बढ़ई ज़रूर हूंजो बनाना चाहता है एक सुंदर सी खिड़कीआपकी ही दीवार मेंजिसमें से झाँक सके उर्मिला, सुमित्रा और मंदोदरी जैसे पात्र थोड़ी-सी साँस ले सकें ताज़ा हवा मेंऔर हम उन्हें जी भर कर देख सकें उनकी अनकही भावनाओं के साथ!मुझे शक्ति देना महाकवि,कलयुग में लोग मानवीय भावनाओं के विश्लेषण को लेकर अधिक ही विचारशील हो गए हैं!
जानकी के लिए
मर चुका है रावण का शरीर स्तब्ध है सारी लंकासुनसान है किले का परकोटाकहीं कोई उत्साह नहींकिसी घर में नहीं जल रहा है दियाविभीषण के घर को छोड़ कर।
उर्मिला
टिमटिमाते दियों सेजगमगा रही है अयोध्यासरयू में हो रहा है दीप-दानसंगीत और नृत्य के सम्मोहन में हैंसारे नगरवासीहर तरफ जयघोष है ----अयोध्या में लौट आए हैं राम!अंधेरे में डूबा है उर्मिला का कक्षअंधेरा जो पिछले चौदह वर्षों सेरच बस गया है उसकी आत्मा मेंजैसे मंदिर के गर्भ-गृह मेंजमता चला जाता है सुरमई धुँआऔर धीमा होता जाता है प्रकाश!वह किसी मनस्विनी-सी उदासताक रही हैं शून्य मेंसोचते हुए --- राम और सीता के साथअवश्य ही लौट आए होंगे लक्ष्मणपर उनके लिए उर्मिला से अधिक महत्वपूर्ण हैअपने भ्रातृधर्म का अनुशीलनउन्हें अब भी तो लगता होगा ----हमारे समाज में स्त्रियाँ ही तो बनती हैंधर्मध्वज की यात्रा में अवांछित रुकावट ---सोच कर सिसक उठती है उर्मिलाचुपके से काजल के साथ बह जाती है नींदजो अब तक उसके साथ रह रही थी सहचरी-सी!अतीत घूमता है किसी चलचित्र-सागाल से होकर टपकते आँसुओं मेंबहने लगते हैं कितने ही बिम्ब!
ओम ह्रीं श्री लक्ष्म्यै नमः
हमारे घर में पुस्तकें ही पुस्तकें थींचर्चा होती थी वेदों, पुराणों और शास्त्रों कीराम चरित मानस के साथ पढ़ी जाती थीचरक संहिता और लघु पाराशरीहम उन ग्रंथों को सम्भालने में ही लगे रहते थे!घर में अक्सर खाली रहता थाअनाज का भंडारपिता की जेबों मेंशायद ही कभी दिखते थे हरे हरे नोटपर हमें भूखा नहीं रहना पड़ा कभीजब भी माँ शिकायत करतीकुछ न होने कीकोई न कोई निवासीमुहुर्त या लग्न पूछने के बहानेदे ही जाता सेर भर अनाज, गुड़ और सवा रुपयाऔर पिता जी उन रुपयों कोसंभाल कर रख देतेमंदिर के लाल कपड़े के नीचे, लक्ष्मी के चरणों में!
एक पगले नास्तिक की प्रार्थना
मुझे क्षमा करना ईश्वरमुझे नहीं मालूम कि तुम हो या नहींकितने ही धर्मग्रंथों मेंकितनी ही आकृतियों और वेशभूषाओं मेंनज़र आते हो तुमयहाँ तक कि कुछ का कहना हैनहीं है तुम्हारा शरीर
कृतज्ञ हूँ महामाया
अपनी कक्षाओं में घूम रहे हैं असंख्य ग्रह और उपग्रह जुगनुओं की तरह चमक रहे हैं तारे आकाश गंगा के बीच तुम्हें खोजता चला जा रहा हूँ मैंजैसे कोई साधक जाता है देवालय अपने आराध्य की अर्चना के लिए! रत्नजड़ित अलौकिक पीताम्बरी को सम्भाले तुम बिखेर रही हो अपनी कृपा.मुस्कानजन्म लेती है एक नई सुबह पेड़ों पर चहकती है चिड़ियाचटख कर खिलती है एक गुलाब की कलीतुम्हारा होना ही हर सृजन का मूल है देवि!मैं बहुत कृतज्ञ हूँ एक बच्चे की तरह तुम्हें निहारते हुएतुम ब्रह्मांड में स्त्री हो महामाया!