मित्रता का बोझ किसी पहाड़-सा टिका था कर्ण के कंधों पर पर उसने स्वीकार कर लिया था उसे
महाकवि वाल्मीकि उपजीव्य है आपकी रामायण तुलसी से लेकर न जाने कितने ही
मर चुका है रावण का शरीर स्तब्ध है सारी लंका सुनसान है किले का परकोटा
टिमटिमाते दियों से जगमगा रही है अयोध्या सरयू में हो रहा है दीप-दान
हमारे घर में पुस्तकें ही पुस्तकें थीं चर्चा होती थी वेदों, पुराणों और शास्त्रों की राम चरित मानस के साथ पढ़ी जाती थी
मुझे क्षमा करना ईश्वर मुझे नहीं मालूम कि तुम हो या नहीं कितने ही धर्मग्रंथों में
अपनी कक्षाओं में घूम रहे हैं असंख्य ग्रह और उपग्रह जुगनुओं की तरह चमक रहे हैं तारे