हिंदी चिरकाल से ऐसी भाषा रही है जिसने मात्र विदेशी होने के कारण किसी शब्द का बहिष्कार नहीं किया। - राजेंद्रप्रसाद।

दिविक रमेश

दिविक रमेश जी का वास्तविक नाम रमेश शर्मा है। आपका जन्म  28 अगस्त, 1946 को  किराड़ी, दिल्ली में हुआ था।

विधाएँ : कविता, बाल-साहित्य, शोध एवं आलोचना

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह: गेहूँ घर आया है, खुली आँखों में आकाश, रास्ते के बीच, छोटा-सा हस्तक्षेप, हल्दी-चावल और अन्य कविताएँ, बाँचो लिखी इबारत, वह भी आदमी तो होता है, फूल तब भी खिला होता

काव्य नाटक : खण्ड-खण्ड अग्नि

आलोचना : नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत, संवाद भी विवाद भी, कविता के बीच से, साक्षात त्रिलोचन

बाल साहित्य : 101 बाल कविताएँ, समझदार हाथी : समझदार चींटी (136 कविताएँ), हँसे जानवर हो हो हो, कबूतरों की रेल, बोलती डिबिया, देशभक्त डाकू, बादलों के दरवाजे, शेर की पीठ पर, ओह पापा, गोपाल भांड के किस्से, त से तेनालीराम, ब से बीरबल, बल्लूहाथी का बालघर (बाल-नाटक)

संपादन : निषेध के बाद, हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश, बालकृष्ण भट्ट, प्रतापनारायण मिश्र, आंसांबल, दिशाबोध, दूसरा दिविक

सम्मान:
गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, दिल्ली हिंदी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार, साहित्यकार सम्मान बाल तथा साहित्य पुरस्कार, एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार, बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य अवार्ड, इंडो-रशियन लिटरेरी क्लब, नई दिल्ली का सम्मान, अनुवाद के लिए भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली का द्विवागीश पुरस्कार, श्रीमती रतन शर्मा बाल-साहित्य पुरस्कार

 

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दिविक रमेश की चार कविताएँ

सुनहरी पृथ्वी

सूरज
रातभर
मांजता रहता है
काली पृथ्वी को

तब जाकर कहीं
सुनहरी
हो पाती है
पृथ्वी।

 

#

पूरा आदमी

आकाश
चीख नहीं सकता
हम
चीख सकते हैं आकाश में।

कोई
क्या चीख सकता है
...

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माँ गाँव में है

चाहता था
आ बसे माँ भी
यहाँ, इस शहर में।

पर माँ चाहती थी
आए गाँव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही।

न आ सका गाँव
न आ सकी माँ ही
शहर में।

और गाँव
मैं क्या करता जाकर!

पर देखता हूँ
कुछ गाँव तो आज भी ज़रूर है
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।

...

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सोचेगी कभी भाषा

जिसे रौंदा है जब चाहा तब
जिसका किया है दुरूपयोग, सबसे ज़्यादा।
जब चाहा तब
निकाल फेंका जिसे बाहर।
कितना तो जुतियाया है जिसे
प्रकोप में, प्रलोभ में
वह तुम्हीं हो न भाषा।

तुम्हीं हो न
सहकर बलात्कार से भी ज़्यादा
...

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माँ

रोज़ सुबह, मुँह-अंधेरे
दूध बिलोने से पहले
माँ
चक्की पीसती,
और मैं
घुमेड़े में
आराम से
सोता।

-तारीफ़ों में बंधी
मांँ
जिसे मैंने कभी
सोते
नहीं देखा।

आज
जवान होने पर
एक प्रश्न घुमड़ आया है--
पिसती
चक्की थी
या माँ?

...

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छुट्कल मुट्कल बाल कविताएं

दिविक रमेश की बाल कविताएं।

...
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दो बच्चे 

एक बच्चा खेल रहा है 
दूसरा 
खिला रहा है। 

एक 
ले रहा है मजा, 
दूसरा 
घर चला रहा है।

-दिविक रमेश

...
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