तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
किसी के दुख में रो उट्ठूं कुछ ऐसी तर्जुमानी दे मुझे सपने न दे बेशक, मेरी आंखों को पानी दे मुझे तो चिलचिलाती धूप में चलने की आदत है
तुम मेरी बेघरी पे बड़ा काम कर गए कागज का शामियाना हथेली पर धर गए बोगी में रह गया हूं अकेला मैं दोस्तो!
वो कभी दर्द का चर्चा नहीं होने देता अपने जख्मों का वो जलसा नहीं होने देता मेरे आंगन में गिरा देता है पत्ते अक्सर
मेरी औक़ात का ऐ दोस्त शगूफ़ा न बना कृष्ण बनता है तो बन, मुझको सुदामा न बना ये हवाएँ कभी पत्थर भी उठा लेती हैं
जिस तिनके को लोगों ने बेकार कहा था चिड़िया ने उसको अपना संसार कहा था बाँट गया था अपने हिस्से की जो रोटी
प्रस्तुत हैं ज्ञानप्रकाश विवेक की ग़ज़लें !