आज मेरे आँसुओं में, याद किस की मुसकराई? शिशिर ऋतु की धूप-सा सखि, खिल न पाया मिट गया सुख, और फिर काली घटा-सा, छा गया मन-प्राण पर दुख,
इश्क और वो इश्क की जांबाज़ियाँ हुस्न और ये हुस्न की दम साज़ियाँ वक्ते-आख़्रिर है, तसल्ली हो चुकी
उसने मेरा हाथ देखा और सिर हिला दिया, "इतनी भाव प्रवीणता दुनिया में कैसे रहोगे!
सड़कों पे ढले साये दिन बीत गया, राहें हम देख न उकताये!
काट* 'पी सिकंदर' के मुसलमान जाट बाक़र को अपने माल की ओर लालच भरी निगाहों से तकते देखकर चौधरी नंदू पेड़ की छाँह में बैठे-बैठे अपनी ऊंची घरघराती आवाज़ में ललक...