अपनी छत को उनके महलों की मीनारें निगल गयीं धूप हमारे हिस्से की ऊँची दीवारें निगल गयीं अपने पाँवों के छालों के नीचे हैं ज़ख्म...
झेप अपनी मिटाने निकले हैं फिर किसी को चिढ़ाने निकले हैं ऊब कर आदमी की बस्ती से
दर्द की सारी लकीरों को छुपाया जाएगा उनकी ख़ातिर आज हर चेहरा सजाया जाएगा सच तो यह है सब के सब लेंगे दिमाग़ों से ही काम
इसको ख़ुदा बनाकर उसको खुदा बनाकर क्यों लोग चल रहे हैं बैसाखियां लगाकर दो टूक बात कहना आदत-सी हो गई है
बचकर रहना इस दुनिया के लोगों की परछाई से इस दुनिया के लोग बना लेते हैं परबत राई से। सबसे ये कहते थे फिरते थे मोती लेकर लौटेंगे
जंगल-जंगल ढूँढ रहा है मृग अपनी कस्तूरी को कितना मुश्किल है तय करना खुद से खुद की दूरी को इसको भावशून्यता कहिये चाहे कहिये निर्बलता