सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' साहित्य Hindi Literature Collections

कुल रचनाएँ: 24

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निराला की शिक्षाप्रद कहानियां

'निराला की सीखभरी कहानियाँ' में सम्मिलित कई रचनाएं उनकी मौलिक न होकर उनके द्वारा एसोप फेबल्स की अनुदित कहानियाँ हैं। 'निराला' ने एसोप की कथाओं का सुन्दर भावानुवाद किया है। एसोप फेबल्स या एसोपपिका प्राचीन ग्रीक कथाकार एसोप द्वारा लिखीं गई है और उसी के नाम से जानी जाती है । यह कहानियाँ प्राचीन स...

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हिन्दी के सुमनों के प्रति पत्र

मैं जीर्ण-साज बहु छिद्र आज,तुम सुदल सुरंग सुवास सुमन,मैं हूँ केवल पतदल-आसन,तुम सहज बिराजे महाराज।
ईर्ष्या कुछ नहीं मुझे, यद्यपिमैं ही वसन्त का अग्रदूत,ब्राह्मण-समाज में ज्यों अछूतमैं रहा आज यदि पार्श्वच्छबि।
तुम मध्य भाग के, महाभाग !-तरु के उर के गौरव प्रशस्त !मैं पढ़ा जा चुका पत्र, न्यस्त,तुम ...

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निराला की ग़ज़लें

निराला का ग़ज़ल संग्रह - इन पृष्ठों में निराला की ग़ज़लें संकलित की जा रही हैं। निराला ने विभिन्न विधाओं में साहित्य-सृजन किया है। यहाँ उनके ग़ज़ल सृजन को पाठकों के समक्ष लाते हुए हमें बहुत प्रसन्नता हो रही है।
 

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मरा हूँ हज़ार मरण

मरा हूँ हज़ार मरण पाई तब चरण-शरण। फैला जो तिमिर-जाल कट-कटकर रहा काल, 
अँसुओं के अंशुमाल, पड़े अमित सिताभरण। 
जल-कलकल-नाद बढ़ा, अंतर्हित हर्ष कढ़ा, विश्व उसी को उमड़ा, हुए चारु-करण सरण। 
-सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

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साही और साँप | शिक्षाप्रद कहानी

कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी । एक साँप ने खुशामद पर आकर एक साही को अपने बिल में रहने की जगह दी । वह बिल एक छोटा-सा बिल था । उसमें घूमने-फिरने की काफी जगह न थी । साही के जरा हिलते ही उसके काँटे साँप के चुभते थे ।
साँप ने कहा, ''दोस्त, इस बिल में बहुत थोड़ी जगह है; दो इसमें मुश्किल से अट सकते हैं, त...

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दो घड़े | शिक्षाप्रद

एक घड़ा मिट्टी का बना था, दूसरा पीतल का। दोनों नदी के किनारे रखे थे। इसी समय नदी में बाढ़ आ गई, बहाव में दोनों घड़े बहते चले। बहुत समय मिट्टी के घड़े ने अपने को पीतलवाले से काफी फासले पर रखना चाहा।
पीतलवाले घड़े ने कहा, ''तुम डरो नहीं दोस्त, मैं तुम्हें धक्के न लगाऊँगा।''
मिट्टीवाले ने जवाब दिय...

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महावीर और गाड़ीवान | Motivational

एक गाड़ीवान अपनी भरी गाड़ी लिए जा रहा था। गली में कीचड़ था। गाड़ी के पहिए एक खंदक में धँस गए। बैल पूरी ताकत लगाकर भी पहियों को निकाल न सके। बैलों को जुए से खोल देने की जगह गाड़ीवान ऊँचे स्वर में चिल्‍ला-चिल्‍लाकर इस बुरे वक्त में देवताओं की मदद माँगने लगा कि वे उसकी गाड़ी में हाथ लगाएँ। उ...

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बदलीं जो उनकी आँखें

बदलीं जो उनकी आँखें, इरादा बदल गया ।गुल जैसे चमचमाया कि बुलबुल मसल गया ।
यह टहनी से हवा की छेड़छाड़ थी, मगरखिलकर सुगन्ध से किसीका दिल बदल गया ।
ख़ामोश फ़तह पाने को रोका नहीं रुकामुश्किल मुकाम, ज़िंदगी का जब सहल गया ।
मैंने कला की पाटी ली है शेर के लिए,दुनियां के गोलन्दाजों को देखा, दहल गया ।
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शारदा और मोर

शारदा देवताओं की रानी थीं । वैसी रूपवती दूसरी देवी नहीं थी । उनकी प्यारी चिड़िया मोर था । खुशनुमा परों और भारी-भरकम आकार के कारण वह देवताओं की रानी सरस्वती का वाहन होने लायक था ।
कुछ हो, एक दिन मोर ने मन में सोचा, "मेरे साथ बड़ा बुरा बर्ताव किया गया है । मुझे वैसी अच्छी आवाज नहीं दी गयी जैसे कोय...

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किनारा वह हमसे

किनारा वह हमसे किये जा रहे हैं।दिखाने को दर्शन दिये जा रहे हैं।
जुड़े थे सुहागिन के मोती के दाने, वही सूत तोड़े लिये जा रहे हैं।
छिपी चोट की बात पूछी तो बोले निराशा के डोरे सिये जा रहे हैं।
ज़माने की रफ़्तार में कैसे तूफां, मरे जा रहे हैं, जिये जा रहे हैं।
खुला भेद, विजयी कहाये हुए जो, लहू दू...

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सौदागर और कप्तान | सीख भरी कहानी

एक सौदागर समुद्री यात्रा कर रहा था, एक रोज उसने जहाज के कप्‍तान से पूछा, ''कैसी मौत से तुम्‍हारे बाप मरे?"
कप्‍तान ने कहा, ''जनाब, मेरे पिता, मेरे दादा और मेरे परदादा समन्दर में डूब मरे।''
सौदागर ने कहा, ''तो बार-बार समुद्र की यात्रा करते हुए तुम्‍हें समन्दर में डूबकर मरने का खौ...

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भारति, जय विजय करे !

भारति, जय विजयकरे!कनक-शस्य कमलधरे!
लंका पदतल शतदलगर्जितोर्मि सागर-जल,धोता-शुचि चरण युगलस्तव कर बहु-अर्थ-भरे!
तरु-तृण-वन-लता वसन,अंचल में खचित सुमन,गंगा ज्योतिर्जल-कणधवल-धार हार गले!
मुकुट शुभ्र हिम-तुषारप्राण प्रणव ओंकार,ध्वनित दिशाएँ उदार,शतमुख-शतरव-मुखरे!
-सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

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दे, मैं करूँ वरण

दे, मैं करूँ वरणजननि, दुःखहरण पद-राग-रंजित मरण ।
भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों;मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों,आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुसरण ।लांछना इंधन, हृदय-तल जले अनल,भक्ति-नत-नयन मैं चलूँ अविरत सबलपारकर जीवन-प्रलोभन समुपकरण ।
प्राण-संघान के सिन्धु के तीर मैं,गिनता रहूँगा न, क...

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भिक्षुक | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

वह आता --दो टूक कलेजे के करता-- पछताता पथ पर आता।
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक,चल रहा लकुटिया टेक,मुट्ठी-भर दाने को -- भूख मिटाने कोमुँह फटी-पुरानी झोली का फैलाता --दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाये,बायें से वे मलते हुए पेट को चलते,और दाहिना दया-दृष्टि पाने...

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प्राप्ति | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका । मुझे भर लिया तुमने गोद में, कितने चुम्बन दिये, मेरे मानव-मनोविनोद में नैसर्गिकता लिये; सूखे श्रम-सीकर वे छबि के निर्झर झरे नयनों से, शक्त शिरा‌एँ हु‌ईं रक्त-वाह ले, मिलीं - तुम मिलीं, अन्तर कह उठा जब थका, रुका ।

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तोड़ती पत्थर | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'


वह तोड़ती पत्‍थर; देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर- वह तोड़ती पत्‍थर।

कोई न छायादार पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्‍वीकार; श्‍याम तन, भर बँधा यौवन, नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन, गुरू हथौड़ा हाथ, करती बार-बार प्रहार :- सामने तरू-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;...

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वसन्त आया

सखि, वसन्त आया । भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया। किसलय-वसना नव-वय-लतिका मिली मधुर प्रिय-उर तरु-पतिका, मधुप-वृन्द बन्दी- पिक-स्वर नभ सरसाया। लता-मुकुल-हार-गन्ध-भार भर बही पवन बन्द मन्द मन्दतर, जागी नयनों में वन- यौवन की माया। आवृत सरसी-उर-सरसिज उठे, केशर के केश कली के छुटे, स्वर्ण-शस्य-अञ्च...

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ख़ून की होली जो खेली

रँग गये जैसे पलाश; कुसुम किंशुक के, सुहाए,कोकनद के पाए प्राण, ख़ून की होली जो खेली ।
निकले क्या कोंपल लाल, फाग की आग लगी है,फागुन की टेढ़ी तान, ख़ून की होली जो खेली ।
खुल गई गीतों की रात, किरन उतरी है प्रात की;हाथ कुसुम-वरदान, ख़ून की होली जो खेली ।
आई सुवेश बहार, आम-लीची की मंजरी;कटहल की अरघा...

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बापू, तुम मुर्गी खाते यदि | कविता | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

बापू, तुम मुर्गी खाते यदितो क्या भजते होते तुमकोऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे - ?सर के बल खड़े हुए होतेहिंदी के इतने लेखक-कवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदितो लोकमान्य से क्या तुमनेलोहा भी कभी लिया होता?दक्खिन में हिंदी चलवाकरलखते हिंदुस्तानी की छवि,बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदितो क्य...

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जूही की कली

[निराला की प्रथम काव्य कृति]
विजन-वन-वल्लरी परसोती थी सुहाग-भरी--स्नेह-स्वप्न-मग्न--अमल-कोमल-तनु तरुणी--जुही की कली,दृग बन्द किये, शिथिल--पत्रांक में,वासन्ती निशा थी;विरह-विधुर-प्रिया-संग छोड़किसी दूर देश में था पवनजिसे कहते हैं मलयानिल।आयी याद बिछुड़न से मिलन की वह मधुर बात,आयी याद चाँदनी की धु...

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पद्मा और लिली | कहानी

'लिली' कहानी-संग्रह कथानक-साहित्य में निराला का प्रथम प्रयास था। निरालाजी ने इसकी भूमिका में लिखा है -"यह कथानक-सहित्य में मेरा पहला प्रयास है। मुझसे पहलेवाले हिंदी के सुप्रसिद्ध कहानी-लेखक इस कला को किस दूर उत्कर्ष तक पहुँचा चुके हैं, मैं पूरे मनोयोग से समझने का प्रयत्न करके भी नहीं समझ सका। समझ...

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ध्वनि

अभी न होगा मेरा अंतअभी-अभी ही तो आया हैमेरे वन में मृदुल वसंत-अभी न होगा मेरा अंत।

हरे-हरे ये पात,डालियाँ, कलियाँ, कोमल गात।मैं ही अपना स्वप्न-मृदुल-करफेरूँ गा निद्रित कलियों परजगा एक प्रत्यूष मनोहर।

पुष्प-पुष्प से तंद्रालस लालसा खींच लूँगा मैं,अपने नव जीवन का अमृत सहर्ष सींच दूँगा मैं,द्...

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बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!पूछेगा सारा गाँव, बंधु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,वह कभी नहाती थी धँसकर,आँखें रह जाती थीं फँसकर,कँपते थे दोनों पाँव बंधु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,फिर भी अपने में रहती थी,सबकी सुनती थी, सहती थी,देती थी सबके दाँव, बंधु!
- निराला
 

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स्नेह-निर्झर बह गया है | सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'

स्नेह-निर्झर बह गया है रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी,कह रही है--अब यहाँ पिक या शिखी,नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखीनहीं जिसका अर्थ-- जीवन दह गया है।
दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल,पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल,ठाट जीवन का वही-- जो ढह गया है।
अब न...

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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जीवन परिचय