खुली आँखों से सपना देखती सपने को टूटता देखती
कविता में जाना मेरे लिए पीहर जाने जैसा है। मुक़ाम पर पहुँचते ही
बहुत सारा प्याज़ काटने बैठ जाती थी माँ। कहती थी मसाला भूनना है।
बचपन में कछुए को देखती तो सोचती थी क्या देखता होगा
बेटी आने वाली है यह सोच कर उसकी आँखें सुपर बाजार हो जाती हैं
उन पीले ज़र्द कागज़ों के पास कहने को बहुत कुछ था। उन कोरे नए कागज़ों के पास