मैंने जन्मा है तुझे अपने अंश से संस्कारों की घुट्टी पिलाई है । जिया हमेशा दिन-रात तुझको
जैसे ही दिवाली आने वाली होती है सोशल मीडिया पर एक पोस्ट तैरने लगती है कि चीन की बनी इलेक्ट्रिक झालर मत खरीदो, अपने यहाँ के कुम्हारों के बने दीये खरीद कर दि?...
ऐ मन! अंतर्द्वंद्व से परेशान क्यों है? जिंदगी तो जिंदगी है, इससे शिकायत क्यों है? अधूरी चाहतों का तुझे दर्द क्यों है?
आँखें बरबस भर आती हैं, जब मन भूत के गलियारों में विचरता है। सोच उलझ जाती है रिश्तों के ताने-बाने में,
तुम मन में, तुम धड़कन में जीवन के इक इक पल में मोहपाश में बँधे तुम्हारे
कटु वचनों से आहत कर पींग प्रेम की अर्थहीन है। प्रेम समर्पण का नाम दूजा है
रीता कौशल के उपन्यास ‘अरुणिमा’ के अंश उपन्यास: अरुणिमा लेखिका: रीता कौशल