प्रिय स्वदेश है प्राण हमारा, हम स्वदेश के प्राण। आँखों में प्रतिपल रहता है,
तूफान जुल्मों जब्र का सर से गुज़र लिया कि शक्ति-भक्ति और अमरता का बर लिया । खादिम लिया न साथ कोई हमसफर लिया,
चित्त के चाव, चोचले मन के, वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के। चैन था, नाम था न चिन्ता का,
जब दुख पर दुख हों झेल रहे, बैरी हों पापड़ बेल रहे, हों दिन ज्यों-त्यों कर ढेल रहे, बाकी न किसी से मेल रहे, तो अपने जी में यह समझो,
बात सँभारे बोलिए, समुझि सुठाँव-कुठाँव । वातै हाथी पाइए, वातै हाथा-पाँव ॥१॥ निकले फिर पलटत नहीं, रहते अन्त पर्यन्त ।
अच्छी हिन्दी ! प्यारी हिन्दी ! हम तुझ पर बलिहारी ! हिन्दी !! सुन्दर स्वच्छ सँवारी हिन्दी ।
कुछ को मोहन भोग बैठ कर हो खाने को कुछ सोयें अधपेट तरस दाने-दाने को कुछ तो लें अवतार स्वर्ग का सुख पाने को
वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं। जो जीवित जोश जगा न सका,