निर्मम कुम्हार की थापी से कितने रूपों में कुटी-पिटी, हर बार बिखेरी गई, किन्तु
हम पंछी उन्मुक्त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे कनक-तीलियों से टकराकर
मेरे उर में जो निहित व्यथा कविता तो उसकी एक कथा छंदों में रो-गाकर ही मैं, क्षण-भर को कुछ सुख पा जाता
गति प्रबल पैरों में भरी फिर क्यों रहूँ दर-दर खडा जब आज मेरे सामने
दे दिए अरमान अगणित पर न उनकी पूर्ति दी, कह दिया मन्दिर बनाओ
यह हार एक विराम है जीवन महासंग्राम है तिल-तिल मिटूँगा पर दया की भीख मैं लूँगा नहीं।