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कथा-कहानी |
अंतरजाल पर हिंदी कहानियां व हिंदी साहित्य निशुल्क पढ़ें। कथा-कहानी के अंतर्गत यहां आप हिंदी कहानियां, कथाएं, लोक-कथाएं व लघु-कथाएं पढ़ पाएंगे। पढ़िए मुंशी प्रेमचंद,रबीन्द्रनाथ टैगोर, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, फणीश्वरनाथ रेणु, सुदर्शन, कमलेश्वर, विष्णु प्रभाकर, कृष्णा सोबती, यशपाल, अज्ञेय, निराला, महादेवी वर्मा व लियो टोल्स्टोय की कहानियां। |
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इंडियन काफ़्का - सुशांत सुप्रिय |
मैं हूँ, कमरा है, दीवारें हैं, छत है, सीलन है, घुटन है, सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है। हाँ, अकेलापन, जो अकसर मुझे कटहे कुत्ते-सा काटने को दौड़ता है। पर जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार तो करता है। जो अब मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र है। |
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यही मेरा वतन - मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand |
आज पूरे साठ बरस के बाद मुझे अपने वतन, प्यारे वतन का दर्शन फिर नसीब हुआ। जिस वक़्त मैं अपने प्यारे देश से विदा हुआ और क़िस्मत मुझे पच्छिम की तरफ़ ले चली, मेरी उठती जवानी थी। मेरी रगों में ताज़ा खून दौड़ता था और सीना उमंगों और बड़े-बडें़ इरादों से भरा हुआ था। मुझे प्यारे हिन्दुस्तान से किसी ज़ालिम की सख़्तियों और इंसाफ़ के ज़बर्दस्त हाथों ने अलग नहीं किया था। नहीं, ज़ालिम का जुल्म और क़ानून की सख्तियाँ मुझसे जो चाहें करा सकती हैं मगर मेरा वतन मुझसे नहीं छुड़ा सकतीं। यह मेरे बुलन्द इरादे और बड़े-बड़े मंसूबे थे जिन्होंने मुझे देश निकाला दिया। मैंने अमरीका में खूब व्यापार किया, खूब दौलत कमायी और खूब ऐश किये। भाग्य से बीवी भी ऐसी पायी जो अपने रूप में बेजोड़ थी, जिसकी खूबसूरती की चर्चा सारे अमरीका में फैली हुयी थी और जिसके दिल में किसी ऐसे ख़याल की गुंजाइश भी न थी जिसका मुझसे सम्बन्ध न हो। मैं उस पर दिलोजान से न्योछावर था और वह मेरे लिए सब कुछ थी। मेरे पाँच बेटे हुए, सुन्दर,हृष्ट-पुष्ट और नेक, जिन्होंने व्यापार को और भी चमकाया और जिनके भोले,नन्हें बच्चे उस वक़्त मेरी गोद में बैठे हुए थे जब मैंने प्यारी मातृभूमि का अन्तिम दर्शन करने के लिए क़दम उठाया। मैंने बेशुमार दौलत, वफ़ादार बीवी, सपूत बेटे और प्यारे-प्यारे जिगर के टुकड़े, ऐसी-ऐसी अनमोल नेमतें छोड़ दीं। इसलिए कि प्यारी भारतमाता का अन्तिम दर्शन कर लूँ। मैं बहुत बुड्ढा हो गया था। दस और हों तो पूरे सौर बरस का हो जाऊँ, और अब अगर मेरे दिल में कोई आरजू बाक़ी है तो यही कि अपने देश की ख़ाक में मिल जाऊँ। यह आरजू कुछ आज ही मेरे मन में पैदा नहीं हुई है, उस वक़्त भी थी जब कि मेरी बीवी अपनी मीठी बातों और नाज़ुक अदाओं से मेरा दिल खुश किया करती थी। जबकि मेरे नौजवान बेटे सबेरे आकर अपने बूढ़े बाप को अदब से सलाम करते थे, उस वक़्त भी मेरे जिगर में एक काँटा-सा खटकता था और वह काँटा यह था कि मैं यहाँ अपने देश से निर्वासित हूँ। यह देश मेरा नहीं है, मैं इस देश का नहीं हूँ। धन मेरा था, बीवी मेरी थी, लड़के मेरे थे और जायदादें मेरी थीं, मगर जाने क्यों मुझे रह रहकर अपनी मातृभूमि के टूटे-फूटे झोंपड़े, चार छ: बीघा मौरूसी ज़मीन और बचपन के लंगोटिया यारों की याद सताया करती थी और अक्सर खुशियों की धूमधाम में भी यह ख़याल चुटकी लिया करता कि काश अपने देश में होता! |
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डाक्टर आरोग्यम् - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी |
[ हिंदी में अनूदित तमिल कहानी] |
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बन्नो देवी | लोक-कथा - भारत-दर्शन संकलन |
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निकम्मी औलाद | लघुकथा - रेखा शाह आरबी |
"आइए जगमोहन जी, बैठिए और बताइए क्या हाल-चाल है?" अपने पड़ोसी जगमोहन सिंह को कुर्सी देते हुए गुप्ता जी ने कहा। |
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दास्तान-ए-भूख - दिलीप कुमार |
अक्टूबर का महीना , खेतों में धान की खड़ी फसल मंगरे को दिलासा देती थी, बस चंद दिनों की बात है, फसल कट जाए तो न सिर्फ घर में एक छमाही के लिये रसद का जुगाड़ हो जाये बल्कि कुछ पुराने कर्ज चुकता हो जाएं तो नए कर्ज पाने की कोई उम्मीद बन सके। |
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समाधान - फ्रेंज काफ़्का |
"हाय," चूहे ने कहा, "दुनिया हर दिन छोटी होती जा रही है। शुरुआत में यह इतनी बड़ी थी कि डर गया था। भागते-भागते जब अंततः मुझे दूर दाएँ और बाएँ दीवारें दिखी तो प्रसन्नता हुई लेकिन इन दिनों ये लंबी दीवारें इतनी तेज़ी से संकरी हो गई हैं कि मैं झट से अंतिम छोर में आ पहुंचा हूँ, और वहाँ कोने में ही तो चूहेदान है, जहां मुझे जाना है।" |
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विश्वास - सतीशराज पुष्करणा |
पत्नी लम्बे समय से बीमार पड़ी थी। लाख यत्न करने पर भी चिकित्सक उसे रोगमुक्त नहीं कर पा रहे थे। पति परेशान था। पत्नी की पीड़ा वह दूर नहीं कर सकता था और उसका रोग शय्या पर इस तरह पड़ा रहना वह और नहीं झेल सकता था। वह क्या करे, क्या न करे? इसी उधेड़बुन में सड़क पर चलते जाते उसने सोचा, ऐसे जीवन से उसे या रोगिनी को भी क्या लाभ हो रहा है! इससे तो अच्छा है - पत्नी को जीवन से ही मुक्त कर दिया जाए और उसने जहर की एक शीशी खरीद ली। घर पहुँचा। पत्नी ने लेटे-लेटे मुस्कराकर पूछा, “आ गए?" |
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कंगारू के पेट की थैली - रोहित कुमार 'हैप्पी' | न्यूज़ीलैंड |
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अपनी कमाई | कहानी - सुदर्शन | Sudershan |
प्रातःकाल अमीर बाप ने आलसी और आरामतलब बेटे को अपने पास बुलाया और कहा-– “जाकर कुछ कमा ला, नहीं रात को भोजन न मिलेगा।" |
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जीनियस - मोहन राकेश | Mohan Rakesh |
जीनियस कॉफ़ी की प्याली आगे रखे मेरे सामने बैठा था। |
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अपना-पराया | लघुकथा - हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai |
'आप किस स्कूल में शिक्षक हैं?' |
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