जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

बाप दादों की कील | व्यंग्य (विविध)

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Author: केशवचन्द्र वर्मा

हाजी जी ने जब अपना मकान बनवा लिया तो चैन की साँस ली। ऐसा मकान उस शहर में किसी के पास नहीं था। जो देखता वही यह कहता कि ऐसा मकान और किसी ने नहीं बनवाया। हाजी जी ने जब यह देखा तो उन्होंने अपना मकान अच्छे दामों में बेच डालने का निश्चय किया। उनका निश्चय जान कर बहुत-से लोग मकान खरीदने के लिए आने लगे। हाजी जी ने मकान खरीदने वालों के सामने सिर्फ़ एक शर्त रक्खी.... वह सारा मकान देने के लिए तैयार थे बस बात इतनी थी कि एक कमरे में एक कील गाढ़ी हुई थी जिस पर वे अपना अधिकार चाहते थे। बातचीत होते-होते अंततः एक आदमी इसके लिए तैयार हो गया। हाजी साहब एक छोटी-सी कील पर ही तो अपना अधिकार चाहते थे। उस आदमी ने सोचा चलो कोई बात नहीं। मकान अपना रहेगा। एक कील हाजी साहब की ही रहेगी।

मकान बिक गया। शर्त के साथ लिखा पढ़ी हो गई।

नए आदमी ने मकान ले लिया और उसमें जम गया। आधीरात बीत चुकी थी। सब ओर सन्नाटा था। लोग अपने-अपने घरों में खर्राटे भर रहे थे। एकाएक मकान के दरवाजे पर दस्तक सुनकर नए खरीददार ने पुकारा....

"कौन है?"

बाहर से आवाज़ आई--"मैं हूँ हाजी। जरा दरवाजा खोलिएगा।"

उस आदमी ने आकर दरवाजा खोल दिया। और घबराकर पूछा....

"कहिए क्या बात है?"

हाजी जी घर के भीतर आ गए और रहस्यपूर्ण ढंग से बोले--"बात यह है भाई कि वह जो मेरी कील है न, उसमें मुझे एक छोटी-सी डोरी बाँधनी है।... ज़रूरी काम था, इसलिए सोचा कि आपको जरा तकलीफ तो होगी लेकिन डोरी बाँधनी ही थी.... इसलिए...."

उस आदमी ने कहा--"नहीं-नहीं कोई बात नहीं। आप बाँध लीजिए डोरी।"

हाजी जी हीं-हीं करते रहे और जाकर अपनी कील में एक रेशमी डोरी बाँधते रहे। कील को ज़रा मज़बूत करके वह उस रात चले गए।

दो-तीन दिन तक कोई घटना नहीं घटी।

चौथे दिन जब नया मकान वाला खाना खाकर सोने जा रहा था, उसके दरवाजे पर दस्तक हुई! दरवाजा खोलते ही देखा तो हाजी साहब खड़े थे।

"आइए।" कह कर वह आद‌मी उनका स्वागत करने लगा ।

हाजी जी ने फिर अपनी हीं-हीं चालू की और बोले-- "वह ज़रा अपनी कील है न, उसमें जरा पालिश कर देना चाहता हूँ। बात यह है कि लोहे लक्कड़ की चीज़ों पर अगर पालिश कर दी जाय तो वह बहुत दिनों तक चलती रहती है लेकिन यूँ ही छोड़ देने पर बड़ी जल्दी खराब हो जाती है। आप तो देखते ही होंगे, यह मकान मैंने जिस कायदे से बनवाया है वह तो आप से छिपा नहीं है। हर चीज़ अव्वल देजें की है। बस यही कुछ चीजों पर पालिश रह गई है सो कब मैं इस कील पर अगर पालिश कर दूँ तो इसकी उम्र बढ़ जाए।"

उस आदमी को हाजी जी का उस वक्त आना कुछ पसन्द नहीं आया। कुछ रूखे स्वरों में उसने कहा--"जी हाँ! ठीक है। पालिश कर लीजिए।

हाजी जी ने बाहर खड़े दो आदमियों को भीतर बुला लिया । उनमें से एक ने पहिले डोरी खोली फिर दूसरे ने उस कील पर पालिश करनी शुरू की। पहिले एक कोट चढ़ाया फिर उसे सूखने में आध घन्टे लग गए। आध घन्टे बाद उस कील पर दूसरा कोट चढ़ाया। जब वह भी सूख गया तब उस पर डोरी बाँधी और तब जाने के लिए तैयार हुए। हाजी जी जाते वक्त फिर माफ़ी माँगने लगे--"माफ करना भाई। दरअस्ल 'काम में वक्त तो लगता ही है। अब ये कारीगर लोग हैं। जब तक काम ठीक से न कर लें तब तक अधूरा काम छोड़ कर भी नहीं जा सकते ।... हीं-हीं-हीं.... इन्हें भी तो अपने पूरे पैसे की फिक्र रहती है। हम तो दिन में ही आं जाते पर हमने सोचा कि रात में आप जरूर मिल जायेंगे। आपकी मौजूदगी में ही यह सब काम होना चाहिए... क्योंकि मकान तो आपका ही है.... ही-ही-ही... मेरा क्या, मेरी तो यह जरा-सी कील है.... और फिर यह कील भी अपने बाप-दादों की न होती तो मेरा क्या जहाँ इतना बड़ा मकान बेंच दिया वहाँ यह कील भी बेंच देता- तकलीफ तो आपको हुई ही पर.... काम भी तो होना ही था....।"

आदमी के तेवर कुछ चढ़े हुए थे पर फिर भी शिष्टता दिखाते हुए बोला--"ठीक है। आपका काम हो गया हो तो ठीक है।

 "आदाबअर्ज।" हाजी जी अपने कारीगरों के समेत चले गये। शहर में इधर-उधर इसकी चर्चा होने लगी। लोग कहते थे कि हाजी जी अपने बुजुर्गों की कील के पीछे जान देते हैं। घर नया हो गया, बिक गया मगर कील को उन्होंने जान से बढ़कर रक्खा।

नए खरीददार के लिए यह कील सरदर्द होने लगी। जो मिलता वही उस कील के बारे में पूछता। कोई कहता कि वह कील किसी तहखाने की कुंजी है जिसमें हाजी के बाप-दादों का खजाना है। कोई कहता कि उस कील में एक जिन्नात रहता है। सब उसका असली रहस्य जानने के लिए इस आदमी को चौक बाजार, चौराहे, दूकान, कचहरी सब जगह घेरते।

दिन भर उस कील के बारे में उड़ी हुई अफवाहों के उत्तर देता हुआ जब वह आदमी थक कर घर पहुँचा और अपनी चारपाई पर पड़ गया तभी उसे दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी। एकाध बार उसने सुन कर अनसुना कर दिया। पर दस्तक धीरे-धीरे धमधमाइट में बदलती चली गई। हार कर उसने दरवाजा खोला। सामने ही हाजी साहब खड़े थे। उसे देखते ही हाजी साहब कुछ ऊँची आवाज में बोले--'वाह साहब, वाह। आप तो घोड़े बेच कर सोते हैं। अब में अपनी कील तक पहुँचने के लिए दो घंटे आप की मिन्नत करूँ तो वहाँ तक पहुँचूँ ।.... ऐसे ही है तो आप इस दरवाजे की एक चाभी मुझको दे दीजिए जिसमे जब भी आप इस तरह से बेखबर सो रहे हों मैं कम से कम अपना काम तो कर सकूँ।'

उस आदमी ने कहा--'लेकिन आप वक्त बेवक्त इस तरह मुझे परेशान करते हैं। आप अपनी कील ले जाइए।'

'कील कैसे ले जाऊँ। वह तो शर्तनामे में लिखी हुई है। कील रहेगो और इसी मकान में रहेगी।... एक तरफ हट जाइए.... मुझे जरा अपनी कील में से डोरी खोलनी है।

हाजी जी ने शर्तनामे की बात की तो वह आदमी चुप हो गया। उन्होंने जाकर उस कील में से डोरी खोली और एक नया फ्रीता बाँधा इस बार जाते समय न तो उन्होंने माफ्री माँगी और न दोनों में कोई अभिवादन ही हुआ।

दूसरे दिन से वह आदमी मकान बेचने के लिए शहर में इधर- उधर दौड़ने लगा। पर कील के डर के मारे कोई भी लेने को तैयार न हुआ। हार कर किसी तरह से वह हाजी जी से ही अपना मकान वापस ले लेने के लिए विनती करने लगा।

 हाजी जी ने जिस दाम पर बेचा था उसकी चौथाई कीमत लगा कर वह मकान फिर खरीद लिया और जिस चैन के लिए उन्होंने वह मकान बनवाया था वह उन्हें वापस मिल गया और साथ ही उस मकान की पूरी लागत भी!!

इस कथा से कुछ शिक्षाएँ मिलतीं हैं:

(अ) अपने बाप-दादों की कील गाढ़ने वाले सदा आनन्द करते हैं।

(ब) सस्ता सौदा देख कर ही मत दौड़िए। पहले पता कर लीजिए कि सारा माल आपका... सिर्फ़ आपका ही रहेगा।

(द) एक कील की जहमत से हार कर पूरा मकान बेचने वाले मूरखों को अपना मित्र न बनाइए।

-केशवचन्द्र वर्मा

(एस० एस० काफ्स की नीति कथा पर आधारित)

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