प्रवासियों की व्यथा-कथा

रचनाकार: विनीता तिवारी

बातें देश-विदेश की

विदेशों में बसी पहली प्रवासी भारतीय पीढ़ी का न बिसरने वाला देश प्रेम उसे ता उम्र देश और विदेश के बीच त्रिशंकु सा लटकाए रखता है।

देश से बाहर विदेशों में जाने और घूमने फिरने का मन तो वैसे किसका नहीं करता मगर वहाँ जाकर पूरी तरह बस जाने के लिए काफ़ी दिमाग़ी जद्दोजहद से गुज़रना पडता है। शुरूआती दिनों में ज़्यादातर सभी प्रवासियों के दिमाग़ में पैसा कमाकर वापिस देश लौट जाने का विचार बना रहता है। माता-पिता, भाई- बहनों का विछौह दूर बैठे प्रवासी भारतीयों को शुरू शुरू मे कुछ ज़्यादा ही खलता है। अपनी भाषा, अपने वार-त्यौहार और अपने पहरान-उढान भी जब-तब दिल पर दस्तक देते रहते हैं। और सबसे ज़्यादा तो देश में आसानी से मिलने वाली लेबर, यानि कि कामवाले, कामवालियों की कमी रह-रह कर विदेश में अखरती रहती है। क्यों न हो भई, पश्चिमी देशों में सारा का सारा काम जब ख़ुद को करना पड़ता है तो कामवालियों की याद में रो रो के रुमाल भीग ही जाता है।

ख़ैर, इन उपरोक्त प्रवासी भारतीयों में अधिकांशत: 25 से 40 की उम्र वाले वे शिक्षित प्रोफेशनल्स होते हैं जो अच्छी नौकरी एवं अच्छी तनख़्वाह पर बाहर की कम्पनियों द्वारा पश्चिमी देशों में बुलाए जाते हैं। इन देशों में आते ही सामान्य सुख सुविधाओं के लिए इन प्रवासियों को ज़्यादा मेहनत मशक़्क़त नहीं करनी पड़ती। साथ ही इंटरनेशनल तज़ुर्बा उन्हें भारत वापिस लौटकर भी बेहतर नौकरी एवं आला भविष्य की उम्मीद दिलाए रहता है। लेकिन फिर भी न जाने क्यूँ इनमें से बहुत ही कम ऐसे प्रवासी भारतीय होते हैं जो कि सिर्फ़ चंद वर्ष बाहर विदेशों में रहकर और थोड़ा-बहुत पैसा इकट्ठा करके स्वेच्छा से देश लौटने की हिम्मत जुटा पाते हैं।

कारण ये है कि अगर वे नवविवाहित दम्पत्ति का स्टेटस लेकर आए होते हैं तो इन अगले चंद वर्षों में वे नये आने वाले मेहमानों के आगमन में व्यस्त हो जाते हैं और इन नन्हें मुन्ने मेहमानों को मिलने वाली विदेशी नागरिकता का लालच माँ बाप को वहीं विदेशों में रोके रखता है। जो परिवार भारत से ही अपने छोटे बच्चे साथ लेकर विदेशों में आए होते हैं, उनके बच्चे यहाँ आकर स्कूल/कॉलेज जाना शुरू कर देते हैं, तो अच्छी शिक्षा व्यवस्था और बच्चों का बेहतर भविष्य भारतीय माता पिता की वापसी में आड़े आने लगता है। कुछ जो अविवाहित या प्रोढ अवस्था में आए होते हैं, उनको लगता है कि अब आ ही गये हैं तो कम से कम ग्रीनकार्ड, सिटीज़नशिप होने तक तो रूकना ही चाहिए कि कल को अगर फिर से आने का मन हो तो वीज़ा मिलने न मिलने की अनिश्चितता से न गुज़रना पड़े। किसी को यहाँ उपलब्ध उच्च शिक्षा की सम्भावनाएँ रोक लेती हैं तो किसी को व्यवसाय करने की सरलता और भरपूरता। फिर इस तरह एक के बाद एक आने वाले जीवन के पड़ावों के साथ धूमिल होता जाता है देश वापिस लौटने का विचार।

अगर कुछ एक प्रतिशत किसी न किसी वजह से भारत वापिस लौटते भी है तो उनकी पुन: विदेश लौट आने की संभावना बराबर बनी रहती है।

पिछले 25 वर्षों के दौरान मेरे अपने जान पहचान के दायरे मे मैंने कुल 3-4 ही परिवारों को वापिस देश लौटते देखा है जिनमें से दो परिवार अपनी पक्की धारणा बनाकर जाने के बावजूद किसी न किसी परिस्थिति के तहत वापिस अमेरिका लौट आए। एक परिवार को भारत में नौकरी और व्यवसाय करने के कठिन एवं भिन्न तरीक़ों ने परेशान कर दिया तो दूसरे परिवार को उनके बच्चो के वापिस यहीं आकर उच्च शिक्षा प्राप्त करने के फ़ैसलें ने। वजह जो भी हो मगर प्रवासी भारतीयों की यह उथल-पुथल और अनिश्चितता वाली ज़िंदगी कभी-कभी सालों-साल तक यूं ही चलती रहती है। और साथ में चलती रहती है देश से विदेश और विदेश से देश की न ख़त्म होने वाली तुलना एवं इस तुलना से जुड़ी चुनावी सम्भावनाएँ। असल में यही तुलनात्मक दृष्टिकोण और चुनने का विकल्प बहुत से प्रवासियों की आजीवन असंतुष्टता का कारण बना रहता है।

विनीता तिवारी
वर्जीनिया, अमेरिका