जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

ताई | कहानी

 (कथा-कहानी) 
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रचनाकार:

 विश्‍वंभरनाथ शर्मा कौशिक

''ताऊजी, हमें लेलगाड़ी (रेलगाड़ी) ला दोगे?" कहता हुआ एक पंचवर्षीय बालक बाबू रामजीदास की ओर दौड़ा।

बाबू साहब ने दोंनो बाँहें फैलाकर कहा- ''हाँ बेटा,ला देंगे।'' उनके इतना कहते-कहते बालक उनके निकट आ गया। उन्‍होंने बालक को गोद में उठा लिया और उसका मुख चूमकर बोले- ''क्‍या करेगा रेलगाड़ी?''

बालक बोला- ''उसमें बैठकर बली दूल जाएँगे। हम बी जाएँगे,चुन्‍नी को बी ले जाएँगे। बाबूजी को नहीं ले जाएँगे। हमें लेलगाड़ी नहीं ला देते। ताऊजी तुम ला दोगे, तो तुम्‍हें ले जाएँगे।''

बाबू- "और किसे ले जाएगा?''

बालक दम भर सोचकर बोला- ''बछ औल किछी को नहीं ले जाएँगे।''

पास ही बाबू रामजीदास की अर्द्धांगिनी बैठी थीं। बाबू साहब ने उनकी ओर इशारा करके कहा- ''और अपनी ताई को नहीं ले जाएगा?''

बालक कुछ देर तक अपनी ताई की और देखता रहा। ताईजी उस समय कुछ चि‍ढ़ी हुई सी बैठी थीं। बालक को उनके मुख का वह भाव अच्‍छा न लगा। अतएव वह बोला- ''ताई को नहीं ले जाएँगे।''

ताईजी सुपारी काटती हुई बोलीं- ''अपने ताऊजी ही को ले जा मेरे ऊपर दया रख।'' ताई ने यह बात बड़ी रूखाई के साथ कही। बालक ताई के शुष्‍क व्‍यवहार को तुरंत ताड़ गया। बाबू साहब ने फिर पूछा- ''ताई को क्‍यों नहीं ले जाएगा?''

बालक- ''ताई हमें प्‍याल(प्‍यार), नहीं कलतीं।''

बाबू- ''जो प्‍यार करें तो ले जाएगा?''

बालक को इसमें कुछ संदेह था। ताई के भाव देखकर उसे यह आशा नहीं थी कि वह प्‍यार करेंगी। इससे बालक मौन रहा।

बाबू साहब ने फिर पुछा- ''क्‍यों रे बोलता नहीं? ताई प्‍यार करें तो रेल पर बिठाकर ले जाएगा?''

बालक ने ताउजी को प्रसन्‍न करने के लिए केवल सिर हिलाकर स्‍वीकार कर लिया, परंतु मुख से कुछ नहीं कहा।

बाबू साहब उसे अपनी अर्द्धांगिनी के पास ले जाकर उनसे बोले- ''लो, इसे प्‍यार कर लो तो तुम्‍हें ले जाएगा।'' परंतु बच्‍चे की ताई श्रीमती रामेश्‍वरी को पति की यह चुगलबाजी अच्‍छी न लगी। वह तुनककर बोली- ''तुम्‍हीं रेल पर बैठकर जाओ, मुझे नहीं जाना है।''

बाबू साहब ने रामेश्‍वरी की बात पर ध्‍यान नहीं दिया। बच्‍चे को उनकी गोद में बैठाने की चेष्‍टा करते हुए बोले- ''प्‍यार नहीं करोगी, तो फिर रेल में नहीं बिठावेगा।-क्‍यों रे मनोहर?''

मनोहर ने ताऊ की बात का उत्‍तर नहीं दिया। उधर ताई ने मनोहर को अपनी गोद से ढकेल दिया। मनोहर नीचे गिर पड़ा। शरीर में तो चोट नहीं लगी, पर हृदय में चोट लगी। बालक रो पड़ा।

बाबू साहब ने बालक को गोद में उठा लिया। चुमकार-पुचकारकर चुप किया और तत्‍पश्‍चात उसे कुछ पैसा तथा रेलगाड़ी ला देने का वचन देकर छोड़ दिया। बालक मनोहर भयपूर्ण दॄष्टि से अपनी ताई की ओर ताकता हुआ उस स्‍थान से चला गया।

मनोहर के चले जाने पर बाबू रामजीदास रामेश्‍वरी से बोले- ''तुम्‍हरा यह कैसा व्‍य‍वहार है? बच्‍चे को ढकेल दिया। जो उसे चोट लग जाती तो?''

रामेश्‍वरी मुँह मटकाकर बोली- ''लग जाती तो अच्‍छा होता। क्‍यों मेरी खोपड़ी पर लादे देते थे? आप ही मेरे उपर डालते थे और आप ही अब ऐसी बातें करते हैं।''

बाबू सा‍हब कुढ़कर बोले- ''इसी को खोपड़ी पर लादना कहते हैं?''

रामेश्‍वरी- ''और नहीं किसे कहते हैं, तुम्‍हें तो अपने आगे और किसी का दु:ख-सुख सूझता ही नहीं। न जाने कब किसका जी कैसा होता है। तुम्‍हें उन बातों की कोई परवाह ही नहीं, अपनी चुहल से काम है।''

बाबू- ''बच्‍चों की प्‍यारी-प्‍यारी बातें सुनकर तो चाहे जैसा जी हो,प्रसन्‍न हो जाता है। मगर तुम्‍हारा हृदय न जाने किस धातु का बना हुआ है?''

रामेश्‍वरी- ''तुम्‍हारा हो जाता होगा। और होने को होता है, मगर वैसा बच्‍चा भी तो हो। पराये धन से भी कहीं घर भरता है?''

बाबू साहब कुछ देर चुप रहकर बोले- ''यदि अपना सगा भतीजा भी पराया धन कहा जा सकता है, तो फिर मैं नहीं समझता कि अपना धन किसे कहेंगे?''

रामेश्‍वरी कुछ उत्‍तेजित हो कर बोली- ''बातें बनाना बहुत आसान है। तुम्‍हारा भतीजा है, तुम चाहे जो समझो, पर मुझे यह बातें अच्‍छी नहीं लगतीं। हमारे भाग ही फूटे हैं, नहीं तो यह दिन काहे को देखने पड़ते। तुम्‍हारा चलन तो दुनिया से निराला है। आदमी संतान के लिए न जाने क्‍या-क्‍या करते हैं- पूजा-पाठ करते हैं, व्रत रखते हैं,पर तुम्‍हें इन बातों से क्‍या काम? रात-दिन भाई-भतीजों में मगन रहते हो।''

बाबू साहब के मुख पर घृणा का भाव झलक आया। उन्‍होंने कहा- ''पूजा-पाठ, व्रत सब ढकोसला है। जो वस्‍तु भाग्‍य में नहीं, वह पूजा-पाठ से कभी प्राप्‍त नहीं हो सकती। मेरो तो यह अटल विश्‍वास है।"

श्रीमतीजी कुछ-कुछ रूँआसे स्‍वर में बोलीं- "इसी विश्‍वास ने सब चौपट कर रखा है। ऐसे ही विश्‍वास पर सब बैठ जाएँ तो काम कैसे चले? सब विश्‍वास पर ही न बैठे रहें, आदमी काहे को किसी बात के लिए चेष्‍टा करे।"

बाबू साहब ने सोचा कि मूर्ख स्‍त्री के मुँह लगना ठीक नहीं। अतएव वह स्‍त्री की बात का कुछ उत्‍तर न देकर वहाँ से टल गए।

2

बाबू रामजीदास धनी आदमी हैं। कपड़े की आढ़त का काम करते हैं। लेन-देन भी है। इनसे एक छोटा भाई है उसका नाम है कृष्‍णदास। दोनों भाइयों का परिवार एक में ही है। बाबू रामदास जी की आयु 35 के लगभग है और छोटे भाई कृष्णदास की आयु 21 के लगभग । रामदासजी निस्‍संतान हैं। कृष्‍णदास के दो संतानें हैं। एक पुत्र-वही पुत्र, जिससे पाठक परिचित हो चुके हैं- और एक कन्‍या है। कन्‍या की वय दो वर्ष के लगभग है।

रामदासजी आपने छोटे भाई और उनकी संतान पर बड़ा स्‍नेह रखते हैं- ऐसा स्‍नेह कि उसके प्रभाव से उन्‍हें अपनी संतानहीनता कभी खटकती ही नहीं। छोटे भाई की संतान को अपनी संतान समझते हैं। दोनों बच्‍चे भी रामदास से इतने हिले हैं कि उन्‍हें अपने पिता से भी अधिक समझते हैं।

परंतु रामदास की पत्‍नी रामेश्वरी को अपनी संतानहीनता का बड़ा दु:ख है।वह दिन-रात संतान ही के सोच में घुली रहती हैं। छोटे भाई की संतान पर पति का प्रेम उनकी आँखो में काँटे की तरह खटकता है।

रात के भोजन इत्‍यादि से निवृत्‍त होकर रामजीदास शैया पर लेटे शीतल और मंद वायु का आनंद ले रहे हैं। पास ही दूसरी शैया पर रामेश्‍वरी, हथेली पर सिर रखे, किसी चिंता में डूबी हुई थी। दोनों बच्‍चे अभी बाबू साहब के पास से उठकर अपनी माँ के पास गए थे। बाबू साहब ने अपनी स्‍त्री की ओर करवट लेकर कहा- "आज तुमने मनोहर को बुरी तरह ढकेला था कि मुझे अब तक उसका दु:ख है। कभी-कभी तो तुम्‍हारा व्‍यव‍हार अमानुषिक हो उठता है।''

रामेश्‍वरी बोली- ''तुम्‍ही ने मुझे ऐसा बना रक्‍खा है। उस दिन उस पंडित ने कहा कि हम दोनों के जन्‍म-पत्र में संतान का जोग है और उपाय करने से संतान हो सकती है। उसने उपाय भी बताये थे, पर तुमने उनमें से एक भी उपाय करके न देखा। बस, तुम तो इन्‍ही दोनों में मगन हो। तुम्‍हारी इस बात से रात-दिन मेरा कलेजा सुलगता रहता है। आदमी उपाय तो करके देखता है। फिर होना न होना भगवान के अधीन है।"

बाबू साहब हँसकर बोले- ''तुम्‍हारी जैसी सीधी स्‍त्री भी क्‍या कहूँ? तुम इन ज्‍योतिषियों की बातों पर विश्‍वास करती हो, जो दुनिया भर के झूठे और धूर्त हैं। झूठ बोलने ही की रोटियाँ खाते हैं। ''

रामेश्‍वरी तुनककर बोली- ''तुम्‍हें तो सारा संसार झूठा ही दिखाई पड़ता है। ये पोथी-पुराण भी सब झूठे हैं? पंडित कुछ अपनी तरफ से बनाकर तो क‍हते नहीं हैं। शास्‍त्र में जो लिखा है, वही वे भी कहते हैं, वह झूठा है तो वे भी झूठे हैं। अँग्रेजी क्‍या पढ़ी, अपने आगे किसी को गिनते ही नहीं। जो बातें बाप-दादे के जमाने से चली आई हैं, उन्‍हें भी झूठा बताते हैं।''

बाबू साहब- ''तुम बात तो समझती नहीं, अपनी ही ओटे जाती हो। मैं यह नहीं कह सकता कि ज्‍योतिष शास्‍त्र झूठा है। संभव है,वह सच्‍चा हो, परंतु ज्‍योतिषियों में अधिकांश झूठे होते हैं। उन्‍हें ज्‍योतिष का पूर्ण ज्ञान तो होता नहीं, दो-एक छोटी-मोटी पुस्‍तकें पढ़कर ज्‍योतिषी बन बैठते हैं और लोगों को ठगतें फिरते हैं। ऐसी दशा में उनकी बातों पर कैसे विश्‍वास किया जा सकता है?''

रामेश्‍वरी- ''हूँ, सब झूठे ही हैं, तुम्‍हीं एक बड़े सच्‍चे हो। अच्‍छा, एक बात पूछती हूँ। भला तुम्‍हारे जी में संतान का मुख देखने की इच्‍छा क्‍या कभी नहीं होती?''

इस बार रामेश्‍वरी ने बाबू साहब के हृदय का कोमल स्‍थान पकड़ा। वह कुछ देर चुप रहे। तत्‍पश्‍चात एक लंबी साँस लेकर बोले- ''भला ऐसा कौन मनुष्‍य होगा, जिसके हृदय में संतान का मुख देखने की इच्‍छा न हो? परंतु क्‍या किया जाए? जब नहीं है, और न होने की कोई आशा ही है, तब उसके लिए व्‍यर्थ चिंता करने से क्‍या लाभ? इसके सिवा जो बात अपनी संतान से होती, वही भाई की संतान से हो भी रही है। जितना स्‍नेह अपनी पर होता, उतना ही इन पर भी है जो आनंद उसकी बाल क्रीड़ा से आता, वही इनकी क्रीड़ा से भी आ रहा है। फिर नहीं समझता कि चिंता क्‍यों की जाय।''

रामेश्‍वरी कुढ़कर बोली- ''तुम्‍हारी समझ को मैं क्‍या कहूँ? इसी से तो रात-दिन जला करती हूँ, भला तो यह बताओ कि तुम्‍हारे पीछे क्‍या इन्‍हीं से तुम्‍हारा नाम चलेगा?'''

बाबू साहब हँसकर बोले- ''अरे, तुम भी कहाँ की क्षुद्र बातें लायी। नाम संतान से नहीं चलता। नाम अपनी सुकृति से चलता है। तुलसीदास को देश का बच्‍चा-बच्‍चा जानता है। सूरदास को मरे कितने दिन हो चुके। इसी प्रकार जितने महात्‍मा हो गए हैं, उन सबका नाम क्‍या उनकी संतान की बदौलत चल रहा है? सच पूछो, तो संतान से जितनी नाम चलने की आशा रहती है, उतनी ही नाम डूब जाने की संभावना रहती है। परंतु सुकृति एक ऐसी वस्‍तु है, जिसमें नाम बढ़ने के सिवा घटने की आशंका रहती ही नहीं। हमारे शहर में राय गिरधारीलाल कितने नामी थे। उनके संतान कहाँ है। पर उनकी धर्मशाला और अनाथालय से उनका नाम अब तक चला आ रहा है, अभी न जाने कितने दिनों तक चला जाएगा।

रामेश्‍वरी- ''शास्‍त्र में लिखा है जिसके पुत्र नहीं होता, उनकी मुक्ति नहीं होती ?"

बाबू- ''मुक्ति पर मुझे विश्‍वास नहीं। मुक्ति है किस चिड़िया का नाम? यदि मुक्ति होना भी मान लिया जाए, वो यह कैसे माना जा सकता है कि सब पुत्रवालों की मुक्ति हो ही जाती है ! मुक्ति का भी क्‍या सहज उपाय है? ये कितने पुत्रवाले हैं, सभी को तो मुक्ति हो जाती होगी ?''

रामेश्‍वरी निरूत्तर होकर बोली- ''अब तुमसे कौन बकवास करे ! तुम तो अपने सामने किसी को मानते ही नहीं।''

3

मनुष्‍य का हृदय बड़ा ममत्‍व-प्रेमी है। कैसी ही उपयोगी और कितनी ही सुंदर वस्‍तु क्‍यों न हो, जब तक मनुष्‍य उसको पराई समझता है, तब तक उससे प्रेम नहीं करता। किंतु भद्दी से भद्दी और बिलकुल काम में न आनेवाली वस्‍तु को यदि मनुष्‍य अपनी समझता है, तो उससे प्रेम करता है। पराई वस्‍तु कितनी ही मूल्‍यवान क्‍यों न हो, कितनी ही उपयोगी क्‍यों न हो, कितनी ही सुंदर क्‍यों न हो, उसके नष्‍ट होने पर मनुष्‍य कुछ भी दु:ख का अनुभव नहीं करता, इसलिए कि वह वस्‍तु, उसकी नहीं, पराई है। अपनी वस्तु कितनी ही भद्दी हो, काम में न आनेवाली हो, नष्‍ट होने पर मनुष्‍य को दु:ख होता है, इसलिए कि वह अपनी चीज है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि मनुष्‍य पराई चीज से प्रेम करने लगता है। ऐसी दशा में भी जब तक मनुष्‍य उस वस्‍तु को अपना बनाकर नहीं छोड़ता, अथवा हृदय में यह विचार नहीं कर लेता कि वह वस्‍तु मेरी है, तब तक उसे संतोष नहीं होता। ममत्‍व से प्रेम उत्‍पन्‍न होता है, और प्रेम से ममत्‍व । इन दोनों का साथ चोलीदामन का-सा है। ये कभी पृथक नहीं किए जा सकते।

यद्यपि रामेश्‍वरी को माता बनने का सौभाग्‍य प्राप्‍त नहीं हुआ था, तथापि उनका हृदय एक माता का हृदय बनने की पूरी योग्‍यता रखता था। उनके हृदय में वे गुण विद्यमान तथा अंतर्निहित थे, जो एक माता के हृदय में होते हैं, परंतु उसका विकास नहीं हुआ था। उसका हृदय उस भूमि की तरह था, जिसमें बीज तो पड़ा हुआ है, पर उसको सींचकर और इस प्रकार बीज को प्रस्‍फुटित करके भूमि के उपर लानेवाला कोई नहीं। इसीलिए उसका हृदय उन बच्‍चों की और खिंचता तो था, परंतु जब उसे ध्‍यान आता था कि ये बच्‍चे मेरे नहीं, दूसरे के है, तब उसके हृदय में उनके प्रति द्वेष उत्पन्‍न होता था, घृणा पैदा होती थी। विशेकर उस समय उनके द्वेष की मात्रा और भी बढ़ जाती थी, जब वह यह देखती थी कि उनके पतिदेव उन बच्‍चों पर प्राण देते हैं, जो उनके(रामेश्‍वरी के) नहीं हैं।

शाम का समय था। रामेश्‍वरी खुली छत पर बैठी हवा खा रही थी। पास उनकी देवरानी भी बैठी थी । दोनों बच्‍चे छत पर दौड़-दौड़कर खेल रहे थे। रामेश्‍वरी उनके खेल को देख रही थी। इस समय रामेश्‍वरी को उन बच्‍चों का खेलना-कूदना बड़ा भला मालुम हो रहा था। हवा में उड़ते हुए उनके बाल, कमल की तरह खिले उनके नन्‍हें -नन्‍हें मुख, उनकी प्‍यारी-प्‍यारी तोतली बातें, उनका चिल्लाना, भागना, लौट जाना इत्‍यादि क्रीड़ाएँ उसके हृदय को शीतल कर रहीं थीं। स‍हसा मनोहर अपनी बहन को मारने दौड़ा। वह खिलखिलाती हुई दौड़कर रामेश्‍वरी की गोद में जा गिरी। उसके पीछे-पीछे मनोहर भी दौड़ता हुआ आया और वह भी उन्‍हीं की गोद में जा गिरा। रामेश्‍वरी उस समय सारा द्वेष भूल गई। उन्‍होंने दोनों बच्‍चों को उसी प्रकार हृदय से लगा लिया, जिस प्रकार वह मनुष्‍य लगाता है, जो कि बच्‍चों के लिए तरस रहा हो। उन्‍होंने बड़ी सतृष्‍णता से दोनों को प्‍यार किया। उस समय यदि कोई अपरिचित मनुष्‍य उन्‍हें देखता, तो उसे यह विश्‍वास होता कि रामेश्‍वरी उन बच्‍चों की माता है।

दोनों बच्‍चे बड़ी देर तक उसकी गोद में खेलते रहे। सहसा उसी समय किसी के आने की आहट पाकर बच्‍चों की माता वहाँ से उठकर चली गई।

''मनोहर, ले रेलगाड़ी।'' कहते हुए बाबू रामजीदास छत पर आए। उनका स्‍वर सुनते ही दोनों बच्‍चे रामेश्‍वरी की गोद से तड़पकर निकल भागे। रामजीदास ने पहले दोनों को खूब प्‍यार किया, फिर बैठकर रेलगाड़ी दिखाने लगे।

इधर रामेश्वरी की नींद टूटी। पति को बच्‍चों में मगन होते देखकर उसकी भौहें तन गईं । बच्‍चों के प्रति हृदय में फिर वही घृणा और द्वेष भाव जाग उठा।

बच्‍चों को रेलगाड़ी देकर बाबू साहब रामेश्‍वरी के पास आए और मुस्‍कराकर बोले- ''आज तो तुम बच्‍चों को बड़ा प्‍यार कर रही थीं। इससे मालूम होता है कि तुम्‍हारे हृदय में भी उनके प्रति कुछ प्रेम अवश्‍य है।''

रामेश्‍वरी को पति की यह बात बहुत बुरी लगी। उसे अपनी कमजोरी पर बड़ा दु:ख हुआ। केवल दु:ख ही नहीं, अपने उपर क्रोध भी आया। वह दु:ख और क्रोध पति के उक्‍त वाक्‍य से और भी बढ़ गया। उसकी कमजोरी पति पर प्रगट हो गई, यह बात उसके लिए असह्य हो उठी।

रामजीदास बोले- ''इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपनी संतान के लिए सोच करना वृथा है। यदि तुम इनसे प्रेम करने लगो, तो तुम्‍हें ये ही अपनी संतान प्रतीत होने लगेंगे। मुझे इस बात से प्रसन्‍नता है कि तुम इनसे स्‍नेह करना सीख रही हो।''

यह बात बाबू साहब ने नितांत हृदय से कही थी, परंतु रामेश्‍वरी को इसमें व्‍यंग की तीक्ष्‍ण गंध मालूम हुई। उन्‍होंने कुढ़कर मन में कहा- ''इन्‍हें मौत भी नहीं आती। मर जाएँ, पाप कटे! आठों पहर आँखो के सामने रहने से प्‍यार को जी ललचा ही उठता है। इनके मारे कलेजा और भी जला करता है।''

बाबू साहब ने पत्‍नी को मौन देखकर कहा- ''अब झेंपने से क्‍या लाभ। अपने प्रेम को छिपाने की चेष्‍टा करना व्‍यर्थ है। छिपाने की आवश्‍यकता भी नहीं।"

रामेश्‍वरी जल-भभुनकर बोली- "मुझे क्‍या पड़ी है, जो मैं प्रेम करूँगी? तुम्‍हीं को मुबारक रहे। निगोड़े आप ही आ-आ के घुसते हैं। एक घर में रहने में कभी-कभी हँसना बोलना पड़ता ही है। अभी परसों जरा यों ही ढकेल दिया, उस पर तुमने सैकड़ों बातें सुनाईं। संकट में प्राण हैं, न यों चैन, न वों चैन।"

बाबू साहब को पत्‍नी के वाक्‍य सुनकर बड़ा क्रोध आया। उन्‍होंने कर्कश स्‍वर में कहा- "न जाने कैसे हृदय की स्‍त्री है ! अभी अच्‍छी-खासी बैठी बच्‍चों से प्‍यार कर रही थी। मेरे आते ही गिरगिट की तरह रंग बदलने लगी । अपनी इच्‍छा से चाहे जो करे, पर मेरे कहने से बल्लियों उछलती है। न जाने मेरी बातों में कौन-सा विष घुला रहता है। यदि मेरा कहना ही बुरा मालुम होता है, तो न कहा करूँगा। पर इतना याद रखो कि अब कभी इनके विषय में निगोड़े-सिगोड़े इत्‍यादि अपशब्‍द निकाले, तो अच्‍छा न होगा । तुमसे मुझे ये बच्‍चे कहीं अधिक प्‍यारे हैं।''

रामेश्‍वरी ने इसका कोई उत्‍तर न दिया । अपने क्षोभ तथा क्रोध को वे आँखो द्वारा निकालने लगीं।

जैसे-ही-जैसे बाबू रामजीदास का स्‍नेह दोनों बच्‍चों पर बढ़ता जाता था, वैसे-ही-वैसे रामेश्‍वरी के द्वेष और घृणा की मात्रा भी बढ़ती जाती थी। प्राय: बच्‍चों के पीछे पति-पत्‍नी में कहा सुनी हो जाती थी, और रामेश्‍वरी को पति के कटु वचन सुनने पड़ते थे। जब रामेश्‍वरी ने यह देखा कि बच्‍चों के कारण ही वह पति की नज़र से गिरती जा रही हैं, तब उनके हृदय में बड़ा तूफा़न उठा । उन्‍होंने यह सोचा- पराये बच्चों के पीछे यह मुझसे प्रेम कम करते जाते हैं, हर समय बुरा-भला कहा करते हैं, इनके लिए ये बच्‍चे ही सब कुछ हैं, मैं कुछ भी नहीं। दुनिया मरती जाती है, पर दोनों को मौत नहीं। ये पैदा होते ही क्‍यों न मर गए। न ये होते, न मुझे ये दिन देखने पड़ते। जिस दिन ये मरेंगे, उस दिन घी के दिये जलाउँगी। इन्‍होंने ही मेरे घर का सत्‍यानाश कर रक्‍खा है।च्‍चों और मुस्‍कराकर बोले-''आज

4

इसी प्रकार कुछ दिन व्‍यतीत हुए। एक दिन नियमानुसार रामेश्‍वरी छत पर अकेली बैठी हुई थीं उनके हृदय में अनेक प्रकार के विचार आ रहे थे। विचार और कुछ नहीं, अपनी निज की संतान का अभाव, पति का भाई की संतान के प्रति अनुराग इत्‍यादि। कुछ देर बाद जब उनके विचार स्‍वयं उन्‍हीं को कष्‍टदायक प्रतीत होने लगे, तब वह अपना ध्‍यान दूसरी और लगाने के लिए टहलने लगीं।

वह टहल ही रही थीं कि मनोहर दौड़ता हुआ आया । मनोहर को देखकर उनकी भृ‍कुटी चढ़ गई। और वह छत की चहारदीवारी पर हाथ रखकर खड़ी हो गईं।

संध्या का समय था । आकाश में रंग-बिरंगी पतंगें उड़ रही थीं । मनोहर कुछ देर तक खड़ा पतंगों को देखता और सोचता रहा कि कोई पतंग कटकर उसकी छत पर गिरे, क्‍या आनंद आवे ! देर तक गिरने की आशा करने के बाद दौड़कर रामेश्‍वरी के पास आया, और उनकी टाँगों में लिपटकर बोला- ''ताई, हमें पतंग मँगा दो।'' रामेश्‍वरी ने झिड़क कर कहा- ''चल हट, अपने ताऊ से माँग जाकर।''

मनोहर कुछ अप्रतिभ-सा होकर फिर आकाश की ओर ताकने लगा। थोड़ी देर बाद उससे फिर रहा न गया। इस बार उसने बड़े लाड़ में आकर अत्‍यंत करूण स्‍वर में कहा- ''ताई मँगा दो, हम भी उड़ाएँगे।''

इन बार उसकी भोली प्रार्थना से रामेश्‍वरी का कलेजा कुछ पसीज गया। वह कुछ देर तक उसकी और स्थिर दृष्टि से देखती रही । फिर उन्‍होंने एक लंबी साँस लेकर मन ही मन कहा- यह मेरा पुत्र होता तो आज मुझसे बढ़कर भाग्‍यवान स्‍त्री संसार में दूसरी न होती। निगोड़ा-मरा कितना सुंदर है, और कैसी प्‍यारी- प्‍यारी बातें करता है। यही जी चाहता है कि उठाकर छाती से लगा लें।

यह सोचकर वह उसके सिर पर हाथ फेरनेवाली थीं कि इतने में उन्‍हें मौन देखकर बोला- ''तुम हमें पतंग नहीं मँगवा दोगी, तो ताऊजी से कहकर तुम्‍हें पिटवायेंगे।''

यद्यपि बच्‍चे की इस भोली बात में भी मधुरता थी, तथापि रामेश्‍वरी का मुँह क्रोध के मारे लाल हो गया। वह उसे झिड़क कर बोली- ''जा कह दे अपने ताऊजी से देखें, वह मेरा क्‍या कर लेंगे।''

मनोहर भयभीत होकर उनके पास से हट आया, और फिर सतृष्‍ण नेत्रों से आकाश में उड़ती हुई पतंगों को देखने लगा।

इधर रामेश्‍वरी ने सोचा- यह सब ताउजी के दुलार का फल है कि बालिश्‍त भर का लड़का मुझे धमकाता है। ईश्‍वर करे, इस दुलार पर बिजली टूटे।

उसी समय आकाश से एक पतंग कटकर उसी छत की ओर आई और रामेश्‍वरी के उपर से होती हुई छज्‍जे की ओर गई। छत के चारों ओर चहार-दीवारी थी । जहाँ रामेश्‍वरी खड़ी हुई थीं, केवल वहाँ पर एक द्वार था, जिससे छज्‍जे पर आ-जा स‍‍कते थे। रामेश्‍वरी उस द्वार से सटी हुई खड़ी थीं। मनोहर ने पतंग को छज्‍जे पर जाते देखा । पतंग पकड़ने के लिए वह दौड़कर छज्‍जे की ओर चला। रामेश्वरी खड़ी देखती रहीं । मनोहर उसके पास से होकर छज्‍जे पर चला गया, और उससे दो ‍फिट की दूरी पर खड़ा होकर पतंग को देखने लगा। पतंग छज्‍जे पर से होती हुई नीचे घर के आँगन में जा गिरी । एक पैर छज्जे की मुँड़ेर पर रख‍कर मनोकर ने नीचे आँगन में झाँका और पतंग को आँगन में गिरते देख, वह प्रसन्‍नता के मारे फूला न समाया। वह नीचे जाने के लिए शीघ्रता से घूमा, परंतु घूमते समय मुँड़ेर पर से उसका पैर फिसल गया। वह नीचे की ओर चला । नीचे जाते-जाते उस‍के दोनों हाथों में मुँड़ेर आ गई । वह उसे पकड़कर लटक गया और रामेश्वरी की ओर देखकर चिल्‍लाया ''ताई!''

रामेश्‍वरी ने धड़कते हुए हृदय से इस घटना को देखा। उसके मन में आया कि अच्‍छा है, मरने दो, सदा का पाप कट जाएगा। यही सोच कर वह एक क्षण रूकी। इधर मनोहर के हाथ मुँड़ेर पर से फिसलने लगे। वह अत्‍यंत भय तथा करुण नेत्रों से रामेश्‍वरी की ओर देखकर चिल्‍लाया- "अरी ताई!" रामेश्‍वरी की आँखें मनोहर की आँखों से जा मिलीं। मनोहर की वह करुण दृष्टि देखकर रामेश्‍वरी का कलेजा मुँह में आ गया। उन्‍होंने व्‍याकुल होकर मनोहर को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। उनका हाथ मनोहर के हाथ तक पहुँचा ही कि मनोहर के हाथ से मुँड़ेर छूट गई। वह नीचे आ गिरा। रामेश्‍वरी चीख मार कर छज्‍जे पर गिर पड़ीं।

रामेश्‍वरी एक सप्‍ताह तक बुखार से बेहोश पड़ी रहीं। कभी-कभी जोर से चिल्‍ला उठतीं, और कहतीं- "देखो-देखो, वह गिरा जा रहा है- उसे बचाओ, दौड़ो- मेरे मनोहर को बचा लो।" कभी वह कहतीं- "बेटा मनोहर, मैंने तुझे नहीं बचाया। हाँ, हाँ, मैं चाहती तो बचा सकती थी- देर कर दी।" इसी प्रकार के प्रलाप वह किया करतीं।

मनोहर की टाँग उखड़ गई थी, टाँग बिठा दी गई। वह क्रमश: फिर अपनी असली हालत पर आने लगा।

एक सप्‍ताह बाद रामेश्‍वरी का ज्‍वर कम हुआ। अच्‍छी तरह होश आने पर उन्‍होंने पूछा- "मनोहर कैसा है?"

रामजीदास ने उत्‍तर दिया- "अच्‍छा है।"

रामेश्‍वरी- "उसे पास लाओ।"

मनोहर रामेश्‍वरी के पास लाया गया। रामेश्‍वरी ने उसे बड़े प्‍यार से हृदय से लगाया। आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई, हिचकियों से गला रुँध गया। रामेश्‍वरी कुछ दिनों बाद पूर्ण स्‍वस्‍थ हो गईं। अब वह मनोहर और उसकी बहन चुन्‍नी से द्वेष नहीं करतीं। और मनोहर तो अब उसका प्राणाधार हो गया। उसके बिना उन्‍हें एक क्षण भी कल नहीं पड़ती।

विश्‍वम्भरनाथ शर्मा कौशिक

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