चन्द्रशेखर नाम, सूरज का प्रखर उत्ताप हूँ मैं, फूटते ज्वाला-मुखी-सा, क्रांति का उद्घोष हूँ मैं। कोश जख्मों का, लगे इतिहास के जो वक्ष पर है, चीखते प्रतिरोध का जलता हुआ आक्रोश हूँ मैं।
विवश अधरों पर सुलगता गीत हूँ विद्रोह का मैं, नाश के मन पर नशे जैसा चढ़ा उन्माद हूँ मैं। मैं गुलामी का कफ़न, उजला सपन स्वाधीनता का, नाम से आजाद, हर संकल्प से फौलाद हूँ मैं।
आँसुओं को, तेज मैं तेजाब का देने चला हूँ, जो रही कल तक पराजय, आज उस पर जीत हूँ मैं। मैं प्रभंजन हूँ, घुटन के बादलों को चीर देने, बिजलियों की धड़कनों का कड़कता संगीत हूँ मैं।
सिसकियों पर, अब किसी अन्याय को पलने न दूँगा, जुल्म के सिक्के किसी के, मैं यहाँ चलने न दूँगा। खून के दीपक जलाकर अब दिवाली ही मनेगी, इस धरा पर, अब दिलों की होलियाँ जलने न दूँगा।
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों, मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ। मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती, मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ। तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो, गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को, चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ। जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है, वे न भूखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम। मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ, स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ, आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही। हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे, तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह, लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें। रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो, तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा, सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए। चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित, यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली, वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे। यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं, उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे, यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ। यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे, यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती, यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे। यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे, यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर, हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ। हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी, हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।
- श्रीकृष्ण सरल
[अजेय सेनानी, चंद्र शेखर आजाद, जन-कल्याण-प्रकाशन, उज्जैन, मध्यप्रदेश]
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