साहित्य की उन्नति के लिए सभाओं और पुस्तकालयों की अत्यंत आवश्यकता है। - महामहो. पं. सकलनारायण शर्मा।

तू, मत फिर मारा मारा

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 रबीन्द्रनाथ टैगोर | Rabindranath Tagore

निविड़ निशा के अन्धकार में
जलता है ध्रुव तारा
अरे मूर्ख मन दिशा भूल कर
मत फिर मारा मारा--
तू, मत फिर मारा मारा।

बाधाओं से घबरा कर
तू हँसना गाना बन्द न कर
तू धीरज धर तू, साहस कर तू
तोड़ मोह की कारा--
तू, मत फिर मारा मारा।

चिर आशा रख, जीवन-बल रख
संसृति में अनुरक्ति अटल रख
सुख हो, दुख हो, तू हँसमुख रह
प्रभु का पकड़ सहारा--
तू, मत फिर मारा मारा।

-रबीन्द्रनाथ टैगोर
भावानुवाद : रघुवंशलाल गुप्त, आई सी एस, इंडियन प्रैस, प्रयाग

 

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