प्राण का पंछी सवेरे क्यों चहकता है शबनम बूँद से नया बिरवा लहकता है हड्डियों के पसीने से इसे सींचा है फूल मेरे चमन का ज़्यादा महकता है ।
हम ग़म खाते हैं आँसू पीते हैं केवल अपने ही लिए न जीते हैं मानवता की भी पहचान हमें है हम रिश्तों में ही मरते जीते हैं ।
दर्द का चिर संग है तो रहे कौन कैसे उसे बरजे कहे पागल मन झुठला रहा उस को तन की नियति है दर्द को सहे ।
मेरा धन मेरे गीतों का सरमाया गीतों में अपना दुनिया का दुख गाया आलोचक दादा पूछ रहे पर मुझ से किस किस कविसम्मेलन में मैं ने गाया ?
दर्द की शिद्दत कभी घट जाएगी कहानी शीर्षकों में बंट जाएगी रो कर कटे या कटे हँसते हुए जो बची है ज़िन्दगी कट जाएगी ।
वह नहीं बनता जो ज़रूरी काम हर वक़्त रहता मुझे कोई काम जुगनुओं से चमकते हैं कभी सुख ज़िन्दगी ग़मों की दास्ताँ का नाम ।
सीमेण्ट जंगल कहीं आबादी नहीं आराम सारे हैं पर बुनियादी नहीं प्रगति पर हूँ मगर इक ख़्वाब सा रंगीन देश तो आज़ाद पर आज़ादी नहीं ।
मुझे भी साथ ले लिया होता कुछ तो पुण्य भी किया होता रोज़ शब्दों से खेलते हो काम भी कुछ कर लिया होता ।
आप की वाणी सदा आकाशवाणी वह शहद सी मधुर और क़ल्याणी धरती पर उतर कर देख तो कभी लेते कैसे जी रहे हैं मर मर के प्राणी ।
भक्तजन की भीड़ में मैं भी लगा हूँ नहीं मैं पण्डित पुजारी का सगा हूँ माँ शारदे ! मुझे भी दो अपनी कृपा शब्द की ले आरती मैं भी जगा हूँ ।
खोखले जनतन्त्र नारे क्यों लिखूँ ? खोखले हैं शब्द सारे क्यों लिखूँ ? शब्द ही बस शब्द गुंजित हैं यहाँ खो गये हैं अर्थ सारे क्यों लिखूँ?
दिल अगर बेचैन हो क्या कीजिए ? पास श्रोता भी न हो क्या कीजिए ? कभी कोई मुझ को पढ़े ना पढ़े मगर लिखने के सिवा क्या कीजिए !
किस ने कहा कि तुम सिर्फ कविता लिखो पुरुष को राम नारी को सीता लिखो महाभारत के भगोड़े बने तो क्यों कृष्ण की सामर्थ्य बिना गीता लिखो ?
आँसू दिल की भाषा है घुटी घुटी अभिलाषा है प्यार जिसे कहते उस की यह प्यारी परिभाषा है ।
तम की निशा निराशा है प्रात: लाती आशा है इन्द़धनुष सा सतरंगी दुनिया एक तमाशा है ।
दिल का दिल से संवाद है यह वाद नहीं न विवाद है इस घायल दिल में दर्द जो कविता उस का अनुवाद है ।
दुनिया में द्वन्द्व विवाद है वह युद्धों से बर्बाद है बस प्यार जहाँ मेहमान है दिल की बस्ती आबाद है ।
आज कल क्या कहें रिंश्तों से अर्थ में तब्दील रिश्तों से आदमीयत की चमक ग़ायब शक्ल से दिखते फ़रिश्तों से ।
प्यार दिखता कहाँ रिंश्तों में स्वाद किश्मिश में न पिस्तों में जो धरे हैं उच्च सिंहासन गिने जाते हैं फ़रिश्तों में ।
दूर रह कर पास आते हैं पास रह कर प्यास पाते हैं कुछ पास कुछ दूर रहिये तो तन मन पास पास आते हैं ।
प्रेम की महिमा प्रेमी समझता है दूसरा दूर से ही क्यों उलझता है यह प्रश्न क्या है बस इक पहेली है जो फिर फिर उलझता फिर सुलझता है।
-- डॉ॰ सुधेश 314 सरल अपार्मैन्ट्स , द्वारका , सैक्टर १० दिल्ली 110075 फ़ोन 9350974120 ई-मेल: dr.sudhesh@gmail.com
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