जिस देश को अपनी भाषा और अपने साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता। - देशरत्न डॉ. राजेन्द्रप्रसाद।

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

 (काव्य) 
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रचनाकार:

 महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर।

सौरभ फैला विपुल धूप बन
मृदुल मोम-सा धुल रे मृदुतन।
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु-अणु गल।
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे मुझसे ज्वाला कण,
विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं
हाय! न जल पाया तुझमें मिल'।
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेह-हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर का उर जलता,
विद्युत ले घिरता है बादल!
बिहँस-बिहँस मेरे दीपक जल!

द्रुम के अंग हरित कोमलतम
ज्वाला को करते हृदयंगम
वसुधा के जड़ अंतर में भी
बंदी है तापों की हलचल।
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!

मेरी निश्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर
मैं अंचल की ओट किए हूँ
अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बंधन,
है अनादि तू मत घड़ियाँ गिन,
मैं दृग के अक्षय कोषों से--
तुझमें भरती हूँ आँसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम, तेरा प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमित चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल-जल जितना होता क्षय
वह समीप आता छलनामय,
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल-मिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल।
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

- महादेवी वर्मा

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