सलिल कण हूँ, या पारावार हूँ मैं स्वयं छाया, स्वयं आधार हूँ मैं
सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है, सूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते, विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।
मुँह से न कभी उफ़ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं, जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग - निरत नित रहते हैं, शूलों का मूल नसाते हैं, बढ़ खुद विपत्ति पर छाते हैं।
है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके आदमी के मग में? ख़म ठोंक ठेलता है जब नर पर्वत के जाते पाँव उखड़, मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।
गुन बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर, मेहँदी में जैसी लाली हो, वर्तिका - बीच उजियाली हो, बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है।
-रामधारी सिंह दिनकर
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